Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 688
________________ सर्गसमाप्तिपातनिकोपेतग्रन्थप्रमाणमत्र ( ३८१९)। एकोनविंशत्यधिकाष्टशतयुता त्रिसहस्री ज्ञातव्या॥ ARTHI वराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः सर्गः व्यापिनी थी, उनके तेजका तो कहना ही क्या है, उनका विवेक और शक्ति भी अपार थी ऐसे राजर्षिके इस चरित्रको जो व्यक्ति उनकी भक्तिके साथ सुनता है, सुनाता है, पढ़ता है अथवा मनन करता है वह निश्चयसे अनुपम तथा ध्रुवपद ( मोक्ष) को प्रयाण करता है ।। ११५ ।। उपसंहार चारों वर्ग, समन्वित, सरल शब्द, अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें सर्वार्थसिद्धि गमन नाम एकत्रिंशतितम् सर्ग समाप्त। इस महाकाव्यमें साँकी समाप्ति होनेपर दी गई प्रशस्तिको भी मिलाकर पूरे ग्रन्थका प्रमाण तीन हजार, आठ सौ, उन्नीस श्लोक ( ३८१९ ) है। SalonialsRSSPALI [६५५] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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