Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 691
________________ वराङ्ग चरितम् अनिवृत्तिकरण विशेष भेद हैं । इनके सिवा काल-लब्धि, कर्मस्थिति-काललब्धि तथा भव-काल-लब्धि तथा नौ क्षायिक और पाँच क्षयोपशमिक लब्धियाँ भी होती हैं । मोक्ष-जैन दर्शनका सातवाँ तत्व, मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग इन बन्धनके कारणोंके अभाव तथा पूर्वोपार्जित कर्मोकी निर्जरा हो जानेसे ज्ञानावरणी आदि आठों कर्मोके आत्यन्तिक विनाशको मोक्ष कहते हैं। सम्यज्ञान-सम्यक् दर्शनसे युक्त ज्ञान । जीव आदि पदार्थ जिस रूपमें हैं उसी रूपमें जानना । संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय दोषोंसे यह ज्ञान अछूता होता है । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल इसके भेद हैं । दिव्य-ध्वनि-केवल ज्ञान होनेपर तीर्थङ्करोंके उपदेशकी भाषा | इसकी तुलना मेघ गर्जनासे की है | यह एक योजन तक सुन पड़ती व है । यह देव, मनुष्य और पशुओंकी भाषाका रूप लेकर समवशरणमें बैठे सब प्राणियोंका शंका-समाधान तथा अज्ञान-निराकरण करती है। 'अर्द्धमागधी' नामसे भी इसका उल्लेख मिलता है । __ द्रव्य-गुण और पर्यायसे युक्त सत्को द्रव्य कहते हैं । सत् उसे कहते हैं जिसमें उत्पाद व्यय और प्रौव्य हों । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह द्रव्य हैं। गुण-द्रव्यकी अन्वयी-सहभावी योग्यताओंको गुण कहते हैं अर्थात् जिनके कारण एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे अलग मालूम दे, वे गुण हैं। जो अस्तित्व, आदि गुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं इन्हें सामान्य गुण कहते हैं । ज्ञानादि, रूपादि, विशेष-गुण हैं। पर्याय-गुणों के विकारको अर्थात् जो द्रव्यमें आती-जाती रहें उन्हें पर्याय कहते हैं। व्यञ्जन पर्याय और अर्थ पर्यायके भेदसे यह दो प्रकारकी होती है। पदार्थ-सम्यक्-ज्ञानकी उत्पत्तिके प्रधान साधन अर्थोंको बतलानेवाले पदोंको पदार्थ कहते हैं । जीव आदि सात तत्त्व तथा पुण्य और पाप ९ पदार्थ हैं। सम्यक् चारित्र-संसार चक्र समाप्त करनेके लिए उद्यत सम्यक् ज्ञानीकी उन सब क्रियाओंको सम्यक् चारित्र कहते हैं जिनसे कर्मोंका आना रुक जाय । अर्थात हिंसा, आदि बाह्य क्रियाओं तथा योग, आदि आभ्यन्तर क्रियाओंके रुक जानेसे उत्पन्न आत्माकी शुद्धिको ही चारित्र कहते हैं । इसके स्वरूपाचरण, देश, सकल और यथाख्यात चार भेद हैं । सुषमा-अवसर्पिणी युग-चक्रका दूसरा तथा उत्सर्पिणीका पाँचवाँ काल। इसकी स्थिति तीन कोड़ाकोड़ी सागर है। इसमें मध्यम भोगभूमि हरि तथा रम्यक् क्षेत्रोंके समान मनुष्य होते हैं। क्षायोपशमिक-जीवकी वह स्थिति जब उदयमें आनेवाले कर्मोक सर्वघाती स्पर्द्धक विना फल दिये झरते (उदया-भावी-क्षय) हैं तथा सत्तामें रहनेवाले कर्मोंके सर्वघाती स्पर्द्धक दबे रहते हैं। तथा देशघाती कोक स्पर्द्धक उदय में हों। ऐसे भाव १८ होते हैं-मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय ज्ञान, कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि अज्ञान, चक्षु, अचक्षु तथा अवधि दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम। तीर्थकर-दर्शन विशुद्धि, आदि सोलह भावनाओं के कारण बंधे कर्मक उदयसे प्रादुर्भूत प्राणिमात्रका सर्वोपरि आध्यात्मिक नेता। इस जीवके गर्भ, जन्म, तप, केवल तथा मोक्ष कल्याणक इसकी लोकोत्तरताका ख्यापन करते हैं। इसमें जन्मसे ही मति. श्रुत और अवधि ज्ञान होते हैं। ऐसे महात्मा हमारे भरत क्षेत्रमें प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालमें २४-२४ होते हैं । विदेहोंमें सदैव तीर्थकर होते हैं। वहाँपर इनकी कमसे कम संख्या २० और अधिकसे अधिक १६० होती है । वहाँपर पाँचों कल्याणक होना आवश्यक नहीं है इस युग के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ थे और अन्तिम श्री महावीर थे । For Privale & Personal Use Only PAISATISPEOPELARAMSARDARSHAN ६५८] Jain Education international ___www.jainelibrary.org

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