Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 695
________________ वराङ्ग चरितम् वर्ण-व्यवसायके आधारपर किया गया मनुष्यका मुख्य वर्ग या जाति । भगवान् ऋषभदेवने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्णोंकी व्यवस्था की थी क्योंकि पठन-पाठन, यजनयाजन, आत्मविद्या होनेके कारण सैनिक, व्यवसायी और सेवक तीनोंके लिए अनिवार्य हैं । किन्तु भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मण वर्णकी भी पृथक् रूपसे व्यवस्था इसलिए की थी कि कुछ लोग पठन-पाठन, यजन - याजनमें ही लीन रहें । भोजवंश - पुराणोंमें पुरुवंश और कुरुवंशको प्रधान राज्यवंशों में गिनाया है । इसके सिवा गिनाये गये आठ राजवंशों में भोजवंशका भी प्राधान्य है । ऐसा ज्ञात होता है कि भोज परमार ( ल० १०१०- ५५ ई० ) तथा प्रतीहार ( ल० ८३६-९० ई० ) के पहिले भी किसी प्रधान सुख्यात राजाका नाम भोज था जिसके कारण इस वंशको इतना प्राधान्य तथा लोकप्रियता मिली होगी । आश्रम - मानव जीवनके विभागोंका नाम आश्रम है। ये चार हैं १ - ब्रह्मचारी, २- गृहस्थ, ३-साधक ( वानप्रस्थ ) तथा ४ - भिक्षु ( संन्यास ) । ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्याभ्यास तथा मानव जीवनोपयोगी मानसिक तथा शारीरिक योग्यताओंके सम्पादनकी वयको ब्रह्मचर्य कहते हैं । सम्राट् खारवेलने २४ वर्षकी वय तक इसे पाला था । देवपूजा, गुरुपासनादि नित्य क्रियाओंका पालन करते हुए जो गृहस्थ धर्मका पालन करते हैं वे छठी प्रतिमा तक गृहस्थ ही रहते हैं। सातवींसे ग्यारहवीं प्रतिमा तकका पालन करनेवाले उदासीन व्यक्ति साधक कहलाते हैं । अन्तरंग बहिरंग परिग्रहके त्यागी दिगम्बर मुनि भिक्षु कहलाते हैं । जाति - शब्दका प्रचलित अर्थ प्रत्येक वर्णकी परमार, प्रतिहार, अग्रवाल, ओसवाल, आदि जातियाँ होता है । किन्तु शास्त्रोंमें मनुष्यकी कुलीनताके लिए दो बातोंकी शुद्धिपर जोर दिया है वे हैं वंश और जाति । वंश शब्दका अर्थ पितृ-अन्वय अर्थात् पिताका कुल किया है। और जातिकी व्याख्या जननीका कुल किया है । अर्थात् वह व्यक्ति कुलीन है जिसके माता तथा पिता दोनोंके कुल शुद्ध हों। इस पौराणिक व्याख्याके आधारपर जातिका अर्थ ननहाल या माताका वंश है । द्वितीय सर्ग भूरि भूरि- भरपूर, या खूब, बारम्बार । अकृत्रिम बन्धु - स्वाभाविक हितू या मित्र । शास्त्रोंमें बताया है कि जिनके साथ सम्पत्तिका बँटवारा नहीं होता वे नाना, मामा, ससुर, साले वगैरह अकृत्रिम या स्वाभाविक बन्धु होते हैं। तथा दादा, चाचा, चचेरे भाई आदि जिनका पैत्रिक सम्पत्तिमें भाग हो सकता है ये सब स्वाभाविक बन्धु होते हैं । अकृत्रिम बन्धुका दूसरा अर्थ हितकारक हितैषी भी होता है । आठ दिक्पाल - चार दिशाओं तथा विदिशाओंके नियामक देवोंको दिक्पाल कहते हैं। चारों दिशाओंके दिक्पालोंके नाम क्रमशः इन्द्र ( सोम ), यम, वरुण तथा कुबेर है । चारों विदिशाओंके अधिपतियोंके नाम अग्नि, नैऋत्य, वायव्य तथा ईशान हैं । दान - स्व-परके उपकारके लिए अपनी न्यायोपात्त सम्पत्तिके त्यागको दान कहते हैं। यह चार प्रकारका होता है 9 - औषधि दान, २- शास्त्र दान, ३- अभयदान तथा ४-आहारदान । दूसरे प्रकारसे भी चार भेद किये हैं व निम्न प्रकार हैं- १-सर्वदान अथवा सर्वदत्ति अपनी समस्त न्यायोपात्त सम्पत्तिको किसी सत्कार्यमें लगाकर तथा पुत्रादिको उचित भाग देकर विरक्त होनेको कहते हैं । २-पात्रदत्ति रत्नत्रय धारी निर्मन्थ मुनिको नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान देना उत्तम पात्रदत्ति है। व्रती श्रावकोंको दान देना मध्यम पात्रदत्ति है तथा अविरत सम्यक् दृष्टिको देना जघन्य पात्रदत्ति है । ३-समदत्ति साधर्मी बहिन भाइयों की सहायता करनेको कहते हैं । ४- दयादत्ति, दीन-दुखी मनुष्य पशु आदिको दयासे औषधि आदि चार प्रकारका दान देना दयादत्ति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only [६६२] www.jainelibrary.org

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