Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 693
________________ amreate वराङ्ग चरितम् E RESIREWERPATR भरत तथा ऐरावत क्षेत्रमें बारह-बारह होते हैं । १६० विदेहोंमें अधिकसे अधिक १६० और कमसे कम २० होते हैं । इनकी सेनामें । ८४ लाख हाधी ८४ लाख रथ तथा ११८ लाख घोड़े होते हैं । १ चक्र, २ असि, ३छत्र, ४ दण्ड, ५ मणि, ६ चर्म, ७ काकिणी, ८ गृहपति, ९ सेनापति, १० हाथी, ११ घोड़ा, १२ शिल्पी, १३ स्त्री तथा १४ पुरोहित ये चौदह रत्न हैं । १ काल, २ महाकाल (अक्षय भोजन दाता), ३ पाण्डु, ४ माणवक, ५ शंख, ६ नैसर्प, ७ पद्म, ८ पिंगला तथा ९ रत्न ये नौ निधियाँ हैं । प्रत्येक चक्रवर्तकि स्त्री रत्न ( पट्टरानी ) के साथ-साथ ९६ हजार रानियाँ होती हैं । तथा बत्तीस हजार मुकुटधारी राजा उसे अपना अधिपति मानते हैं। इस काल में १-भरत, २-सगर, ३-मघवा, ४-सनत्कुमार, ५-शान्तिनाथ, ६-कुन्थनाथ, ७-अरनाथ, ८-सुभौम, ९-महापद्म, । १०-हरिसेन, ११-जय, १२-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुए हैं । भावी उत्सर्पिणीमें १-भरत, २-दीर्घदन्त, ३-मुक्तदंत ४- गूढ़दंत, ५-श्रीषेण, ६-श्रीभूति, ७-श्रीकान्त, ८-पद्म, ९-महापद्म, १०-चित्रवाहन, ११-विमलवाहन और १२-अरिष्टसेन चक्रवर्ती होंगे। अहमिन्द्र-सौधर्म आदि सोलह स्वर्गोके ऊपरके नौ अनुदिश, नौ ग्रेवेयक तथा पञ्च पञ्चोत्तरमें होनेवाले सब देव । स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, आदिमें ये सब समान होते हैं । इनके देवियाँ नहीं होती हैं । अनन्तसुख-ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय तथा अन्तराय इन चार घातियाँ कर्मोंके क्षयसे १३३ गुणस्थानमें प्रगट होनेवाले स्वाभाविक आनन्दको अनन्तसुख कहते हैं । अनन्तवीर्य-वीयान्तराय कर्मक सर्वथा नाश हो जानेपर केवलीमें उदित होनेवाली आत्माकी अनन्त-शक्तिको अनन्तवीर्य कहते हैं। अनन्त दर्शन-दर्शनावरणी कर्मक आत्यन्तिक क्षयसे केवलीमें उदित होनेवाला परिपूर्ण स्वाभाविक दर्शन । ककुद-बैल या साँड़के कन्धेके ऊपर उठा स्थान । कांदोल । देवकरू-विदेह क्षेत्रके मध्यमें स्थित समेरु पर्वतकी दक्षिण दिशामें उसके सौमनस तथा विद्युत्प्रभ गजदतके बीचके धनुषाकार क्षेत्रका नाम है । यह उत्तम भोगभूमि है । यहाँके युगलियोंकी आयु तीन पल्य होती है । उत्तरकुरू-विदेह क्षेत्रके मध्यमें स्थित सुमेरु पर्वतकी उत्तर दिशा में स्थित धनुषाकार क्षेत्र । दोनों गजदन्तों के बीचका क्षेत्र इसकी लम्बाई ( जीवा ) है और इससे सुमेरु तक इसकी चौड़ाई (धनुष ) है । यह भी उत्तम भोगभूमि है अर्थात् यहाँपर भी सदैव सुषमाकाल रहता है। भोगभूमि-जहाँपर असि, मसि, कृषि आदि कर्म बिना किये ही मनुष्य या पशु दश प्रकारके कल्प वृक्षोंसे इच्छित भोग-उपभोग पाते हैं और सुख सन्तोषमय जीवन बिताते हैं । उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे भोगभूमि तीन प्रकारकी हैं। मुख्य रूपसे देवकुरू-उत्तरकुरू उत्तम भोगभूमि है । जो लोग उत्तम पात्रको दान देते हैं, वे यहाँ उत्पन्न होते हैं । इनकी आयु तीन पल्य होती है । तीन ( आठवीं वार) दिनमें ये एक वेरके बराबर भोजन करते हैं। इनके शरीरकी ऊँचाई छह हजार धनुष होती है । शरीरका रंग सोनेके समान होता है। हरि तथा रम्यक क्षेत्र मध्यम भोगभूमि है | जो मध्यम पात्रको दान देते हैं वे यहाँ पैदा होते हैं । इनकी आयु दो पल्य होती है । ये दो दिन बाद अर्थात छठी बार बहेड़ेके बराबर भोजन करते हैं । शरीरकी ऊँचाई ४ हजार धनुष होती है तथा रंग शंखके समान श्वेत होता है। हैमवत तथा तथा हैरण्यवत् क्षेत्र जघन्य भोगभूमि है । जघन्य पात्रको दान देनेसे यहाँ जन्म होता है । इनकी आयु एक पल्य होती है। [६६०] ये एक दिन बाद अर्थात चौथी बार आँवले बराबर भोजन करते हैं । शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष होती है और रंग नील कमलके समान होता है। भोगभूमिकी पृथ्वी दर्पणके समान निर्मल होती है । इसपर सुगंधित दूब होती है । मधुर जलकी बावडियाँ होती हैं यहाँपर एक - स्त्री तथा पुरुष साथ-साथ ( युगल ) उत्पन्न होते हैं । इनके पैदा होते ही माता-पिता क्रमशः अँभाई और छींक लेकर मर जाते हैं । अतः O CIRE Jain Education intematona! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...

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