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सर्गः
जिनेन्नपूजारतयः प्रकृत्या विशुद्धसम्यक्त्वधियः प्रकृत्या। विशुद्धसम्यक्त्वधियः सुलेश्या लोकान्तिकाः केचम संबभूवः ॥ ११२॥ महेन्द्रपल्यः श्रमणत्वमाप्य प्रशान्तरमाः परिणीतधर्माः । दयादमक्षान्तिगुणैरुपेताः स्वैः स्वैस्तपोभिस्त्रिदिवं प्रजग्मुः ॥ ११३ ॥ इत्येवं नरपतिना वराङ्गनाम्ना यत्प्राप्तं सुखदुःखमप्रचिन्त्यम् । राज्यान्ते कतमिह सत्तपश्च तेन तत्सर्व परिकथितं मया समासात् ॥ ११४॥ तद्भक्त्या चरितमिदं मुनीश्वरस्य श्रीकोतिद्युतिमतिसत्त्वसंयुतस्य। संशृण्वन्परिथयन्पठन्स्मरन्यः सोऽवश्यं ध्रवमतलं पदं प्रयाति ॥ ११५॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते
वराङ्गर्षेः सर्वार्थसिद्धिगमनं नाम एकत्रिंशतितमः सर्गः।
थे । दूसरे कितने ही महर्षि वैजयन्त विमानमें उत्पन्न हुए थे। कुछ लोग ग्रैवेयकोंमें पहुंचे थे, अन्य लोगोंका पुण्य उन्हें आरणअच्युतों कल्प तक ही ले जा सका था ॥ १११ ।।
अन्य यतिवर महेन्द्र कल्पमें ही देव हुए थे। मन, वचन, कायकी तन्मयतासे जिनेन्द्र पूजा करना जिनका स्वभाव था, प्रकृतिसे ही जिन्हें तत्त्वोंपर निर्दोष गाढ़ श्रद्धान होनेके कारण नैसगिक सम्यक्त्व था तथा शुद्ध सम्यकदर्शनके साथ-साथ तपजन्य प्रभावके कारण जिनकी लेश्या विशुद्ध पोत, पद्म तथा शक्ल हो गयी थी वे संयमी मर कर लौकान्तिक देव हुए थे ॥ ११२॥
इतरजन सद्गति सम्राट बरांगकी पत्नियोंने भी अयिकाकी दीक्षा ग्रहण करके विपूल पुण्यराशिका संचय किया था। उनके राग आदि भाव शान्त हो गये थे। दया, इन्द्रिय दम, शान्ति आदि गुणोंने स्वयं ही उन्हें वरण किया था। उन्होंने पर्याप्त घोर तप किया था। जिसके प्रभावसे वे सब भी देवयोनिमें उत्पन्न हुई थीं॥ ११३ ॥
वरांग नामधारी उत्तमपुर तथा पीछे आनर्तपुरके नरपतिने राज्य अवस्थामें हो जो अचिन्तनीय सुख तथा दुख पाये थे तथा राज्य त्याग कर दीक्षा ली थी और श्रमण अवस्थामें उनके द्वारा, जो-जो घोर सत्य तप किये गये थे उन सबका मैंने इस | ग्रन्थमें बड़े संक्षेपसे वर्णन किया है ।। ११४ ।।
प्रथम सम्राट तथा पश्चात् महर्षि वरांग अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मीके स्वयं-वृत वर थे, उनकी कीति विशाल और सर्व १. [ एकत्रिंशत्तमः ।
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