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बराङ्ग चरितम्
अद्यापि तस्य क्षितिपोत्तमस्य द्विजातिभिर्मन्त्रपदप्रवीणैः । उत्थापनं यत्क्रियतेऽनभिज्ञैस्तदेव पर्याप्तमिहात्मवद्भूयः ॥ २० ॥ साकेतपुर्यां सुलभानिमित्तं कृतं निदानं मधुपिङ्गलेन । पुरावराभ्यागमनं च तस्य को नाशृणोद्धारतजातमर्त्यः ॥ २१ ॥ तस्माच्च मायामदलोभरागद्वेषेण रोषेण च संनिबद्धाः । वेदाश्च वेदाध्ययनप्रसक्ता हितार्थिभिस्त्याज्यतमा मनुष्यैः ॥ २२ ॥ दत्तं पुरा क्रूरनृपेण दानं किमिच्छकं सर्वजनाय शक्त्या
इति प्रतीता किल तस्य कीर्तिर्यदुप्रवीरस्थ महीतलेऽस्मिन् ॥ २३ ॥
ज्ञानी पुरुष जानते ही हैं कि वर्तमान में भी यज्ञयागादिमें लोन बड़े-बड़े ब्राह्मण पण्डित जो कि मन्त्रोंके पाठ, सिद्धि, आदि प्रक्रिया विशेषज्ञ हैं, वे भी यद्यपि हिंसा सम्बन्धी रहस्यको नहीं समझते हैं, तथापि अनेक मंत्रपाठ करके राजा बलिका ( नरकसे) उत्थापन करते हैं। महात्मा राजा बलिकी यह सब दुर्दशा ही आत्मज्ञानियोंकी आँखें खोल देनेके लिए काफी है ॥ २० ॥
मधुपिंगल नामके राजर्षिने पुराने युगमें सुलसाको प्राप्त करनेके लिए ही साकेतपुरीमें (अयोध्या) निदान ( किसी वस्तु विशेषको चाहना तथा उसीके लिए सब कार्य करना ) यज्ञ किया था। उस समय वह उस श्रेष्ठ नगरपर आया था इस समस्त वृत्तान्तको कौन ऐसा मनुष्य है जो भारतवर्ष में जन्मा हो और न जानता हो ॥ २१ ॥
इस सब वर्णन तथा युक्तियोंको देखनेके पश्चात् यही परिणाम निकलता है कि माया, अहंकार, लोभ, राग, द्वेष, क्रोध आदि सब ही कुभावोंसे प्रेरित होकर वेदोंकी रचना की गयी है। अतएव जो पुरुष वास्तवमें आत्माका हित चाहते हैं उन्हें वेद तथा वेदोंके पठन-पाठन, प्रचार आदि कर्मोंमें लीन व्यक्तियोंकी संगतिकी अवश्य ही छोड़ देना चाहिये ।
हिंसाकी घातकता
प्राचीन युगकी ही घटना है कि यदुवंश में उत्पन्न महाराज [ अ ] क्रूरने सब ही अभावग्रस्त व्यक्तियोंको उनकी इच्छा के अनुसार देना -[ किमिच्छ ] दान दिया था। यही कारण है कि इस पृथ्वीतलपर यदुवंशके उस वीर शिरोमणि महापुरुषकी यशगाथा आज भी जनताको याद है, तथा लोग उसे कहने सुनने में गौरवका अनुभव करते हैं ।। २३ ।।
१. क निधानं ।
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पंचविंश: सर्गः
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