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वराङ्ग
एकत्रिंशः
चरितम्
[एकत्रिंशः सर्गः] नरेन्द्रपत्न्यः श्रुतिशीलभूषा निर्वेदसंवर्धितधर्मरागाः । विशुद्धिमत्यः प्रतिपन्नदीक्षास्तदा बभूवुः परिपूर्णकामाः ॥१॥ दीक्षाधिराज्यश्रियमभ्युपेता अनय॑सत्संयमरत्नभाजः । प्रीति परां प्रापुरदीनभावा दारिद्रययोषा इव रत्नलाभात् ॥ २॥ अर्थाननप्रतिमान्विधिज्ञाः विषोपमांस्ताविषयान्विदध्यः । ता मेनिरेऽरीनिव सांपरायांस्तत्त्वार्थदृष्टयाहतधर्मरागाः ॥३॥
सर्गः
KoradaicoreTRauseurrenARATE-न्यारा
एकत्रिंश सर्ग जैसा कि पहिले कह चुके हैं दीक्षाको धारण करके ही भूतपूर्व सम्राट वरांगकी रानियोंका अन्तिम महा मनोरथ पूर्ण हो गया था । शास्त्रोंका ज्ञान तथा शीलोंका निरतिचार आचरण ही उनके सच्चे आभूषण हो गये थे। उनका वैराग्य मौलिक तथा स्थायी था इसीलिए उसके द्वारा उनके धार्मिक अनुरागको पूर्ण प्रेरणा प्राप्त हुई थी तथा उनकी निर्मल मति सर्वथा सत्यपथपर ही चल रही थी ॥१॥
तपश्चरणमें भी पतिसे पीछे नहीं प्रव्रज्या ग्रहण करते ही उन्हें दिगम्बर दीक्षा रूपी विशाल साम्राज्यकी अनुपम लक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी। इस राज्यके साथ-साथ उन्हें संयम रूपी महारत्न भी मिले थे जिनका मूल्य आंकना ही असंभव था। इस लाभसे वे परम प्रसन्न थीं तथा उनके विचार तथा आचारमें उस समय अबला सुलभ दीनता न थी। उनकी वही अवस्था थी जो कि दरिद्र स्त्रीको अनायास रन मिल जानेपर होती है ॥२॥
लौकिक संपत्ति तथा पदार्थोंको वे मूर्तिमान अनर्थ ही समझती थीं। तपस्याकी विधिमें प्रवीण रानियां इन्द्रियोंके प्रिय । विषयोंको हालाहलके समान ही प्राणान्तक मानती थीं। सांसारिक मधुर संबन्धोंको वे अमित्र सोचकर छोड़ चुकी थीं। यह सब । इसीलिए था कि तत्त्वोंके सत्य स्वरूपके ज्ञानने ही उनमें अडिग धार्मिक प्रेम उत्पन्न कर दिया था ॥३॥
न्यायमाSUPERTAIRSITE
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