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बरान
परितम्
मनोहरेष्वप्यमनोहरेषु मनोहरे मुनेरसंकल्प्यसमा मतेषु । शदनादिषु स्यात्समवृत्तिचेतस्ता भावनाः पञ्चमसव्रतस्य ।। ८०॥ विसर्जनीयान्यथ वर्जयित्वा गुणानुपादाय यथाक्रमेण । ज्ञानोपयोगात्प्रशमेन तेन ज्ञानं समाराधितमात्मशक्त्या ॥ ८१॥ तथाभिचारातपनीय' सर्व तद्भावनाश्चापि सुसाधयित्वा । नित्योपयोगोऽस्खलितैकदष्टिः सम्यक्त्वमाराधितवान्यथार्थम् ॥ ८२॥ अध्यापकं चापि ततः पुरस्तात्कृत्वानपूर्वोत्तरवधितं तत् । विजित्य सर्वान्स परीषहारीस्तपः समाराधितवान्महात्मा ॥३॥
एकत्रिंशः सर्गः
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अपरिग्रह महावतकी भावनाएं समस्त मनोहर पदार्थोंका त्याग, अमनोहर विषयोंके प्रति उदासीनता, शब्द आदि इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्ति, रागरूप संकल्पसे मुक्ति तथा द्वेषभावोंसे लिप्त प्राणियोंके प्रति भी समभाव, ये पाँचवें महवत अपरिग्रहकी भावनाएं हैं ।। ८०॥
गुण प्राप्ति राजर्षि वरांगने उन सब विषयोंको स्वयं ही त्याग दिया था जिनका त्यागना आवश्यक था। जिस क्रमसे त्याज्य विषयोंको छोड़ा था उसी क्रमसे गुणोंको धारण भी किया था। इन परिवर्तनोंसे उत्पन्न प्रशम मय भावों तथा सतत ज्ञानोपयोगक द्वारा उन्होंने अपनी आत्म शक्तिके अनुसार जितना संभव था उतना अधिक ज्ञानाभ्यास किया था ।। ८१ ॥
वे सदा ही शुभ और शुद्ध उपयोगमें लीन रहते थे, किसी भी क्षण उनकी तत्त्व दृष्टि भ्रान्त न होती थी। पाँचों महाव्रतोंकी भावनाओंमें वे अत्यन्त अभ्यस्त थे तथा उनके अतिचारोंमेंसे एकको भी पास न फटकने देते थे। इस कठिन पथका अनुकरण करके उन्होंने सम्यक्त्वकी पूर्ण उपासना की थी ॥ ८२॥
अन्तिम-साधना अपने निर्यापक आचार्यको साक्षी बनाकर राजषिने प्रारम्भसे तप साधना प्रारम्भ की थी तथा क्रमशः बढ़ाते हुए उस चरम सीमा तक ले गये थे। इस अन्तरालमें उन्होंने क्षुधा, तुषा आदि सब ही परीषह शत्रुओंका भी परास्त किया था आर पूणरूप 1 से तपकी आराधनाको सम्पन्न किया था। ८३ ।।
१. [ तथातिचारानपनीय सर्वान् ] ।
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