________________
वराङ्ग
चरितम्
अनन्तशः संसरतोऽस्य जन्तोः सुदुर्लभा बोधिरिति प्रचिन्त्य । तां प्राप्य तस्मिन्न खलु प्रमादः कर्तव्य इत्येव हि बोधिभिन्ना॥ ९६ ॥ यत्प्राणिनां जन्मजरोग्रमत्युर्महाभयत्रासनिराकृतानाम् । भैषज्यभूतो हि दशप्रकारो धर्मो जिनानामिति चिन्तनीयम् ॥ ९७ ॥ इत्येवमाद्या अनुचिन्तनीयाः प्रोक्ता यथार्थाः क्रमशो विचिन्त्य । प्रसन्नचेता विनिवृत्ततृष्णः समाहितः संयतवाक्प्रचारः ॥ ९८ ॥ मध्ये ललाटस्य मनो निधाय नेत्रभ्रवोर्था खल नासिकाने। एकाग्रचिन्ता प्रणिधानसंस्था समाधये ध्यानपरो बभूव ॥ ९९ ॥
एकत्रिंशः सर्गः
बोध-दुर्लभ __यह जीव संसारमें अनन्तों बार जन्म-मरण कर चुका है तो भी इसे सब कुछ पाकर भी केवल एक ज्ञान ही प्राप्त नहीं हुआ है। यही समझ कर यदि इसे कभी सत्यज्ञान प्राप्त हो जाय तो उसके संरक्षण और वर्द्धनमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। इसे ही बोध-दुर्लभ भावना कहते हैं ।। ९६ ॥
धर्म भावना जो वीतराग तीर्थंकर जन्म, जरा तथा मृत्युसे पार हो गये हैं तथा जिनको बड़ेसे बड़े सांसारिक भय तथा त्रास स्पर्श भी नहीं कर सकते हैं ऐसे कर्मजेता तीर्थंकरोंका क्षमा, आदि दश प्रकारका धर्म ही, जन्म, जरा, मृत्यु, भय, आदिसे पराभूत प्राणियोंकी संसार व्याधिको शान्त कर सकता है ।। ९७ ॥
ये सब बारह भावनाएँ निश्रेयस पानेके लिए उत्सुक व्यक्तिको सदा हो चिन्तवन करना चाहिये इसीलिए इनका सत्य तथा विशद स्वरूप शास्त्रों में कहा गया है ऐसा मन ही मन समझकर राजर्षिका चित्त पुलकित हो उठा था। उनकी सब प्रकार की तृष्णाएँ शान्त हो गयी थीं, अपनी आराधनामें वे चैतन्य हो गये थे तथा वचन आदिका प्रचार भी पूर्ण नियन्त्रित हो। गया था ।। ९८॥
ध्यानकी चरमावस्था शक्ति और उपयोगके साथ राजर्षिने अपने मनको ललाटके मध्य ( मस्तिष्क ) में एकाग्र कर दिया था, भृकुटियों तथा 15६५01 आँखोंको जो नाकके अन्तिम विन्दुपर स्थापित किया था उनकी चिन्ता तथा चित्त दोनों सर्वथा निश्चल हो गये थे। इस क्रमसे समस्त शक्तियोंका एक स्रोतमें सम्मिलन हो जानेके कारण वे समाधिके चरम विकासके लिए सन्नद्ध हो गये थे ।। ९९ ॥ १. [ बोधिचिन्ता]। २. [ नेत्र वोर्वा ] |
माRRIGADERSPECTOTALATHEIGRIHIRDERARIES
Jain Education international
For Privale & Personal Use Only
www.jainelibrary.org