Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 682
________________ बराङ्ग एकत्रिंशः चरितम् आत्मा न चेतोविवरेण तेन गृह्मात्ययं कर्म सहेन्द्रियेण । तथाम्ब नः' छिब्रमतिस्तथैव प्रयोग एवं परिचिन्तनीयः॥ ९२॥ संस्तम्भ्य चेतोविवरं यथावत्तथेन्द्रियद्वारमथो पिधाय ।। स्यात्संवतस्याश्रवसंनिरोधो नावौ यथा वारिणि संवृतायाम् ॥ ९३ ॥ यथापि दुर्वह्निशिखाभिमर्शान्निमेषमात्रेण सभस्मता स्यात् । तपोबलात्प्राक्तनकर्महानिस्तथा मुनेः सा खलु निर्जरोक्ता ॥ ९४ ॥ लोके द्विधा कारणकार्यभावैरुत्पादभङ्गस्थितिसंप्रयुक्तः। पञ्चास्तिकायात्मकसंनिबद्धो विचित्ररूपस्त्विति लोकचिन्ता ॥ ९५॥ सर्गः आस्रव इस शरीरसे संबद्ध आत्मा मनरूपी मुक्केके द्वारा पाँचों इन्द्रियोंकी सहायता पाकर नये-नये शुभ तथा अशुभ कर्मोको ग्रहण करता है। जैसे कि छिद्र पाकर जल फटी नौकामें प्रवेश करता है उसी प्रकार कर्मोंका आत्मामें आना होता है ।। ९२॥ संवर यदि मनरूपी बड़े मुखको तत्परताके साथ भर दिया जाय तथा पाँचों इन्द्रियोंरूपी छेदोंको विधिपूर्वक ढक दिया जाये। तो आत्मा भलीभाँति सुरक्षित हो जायगा । और जब वह संवृत्त हो हो गया तो कोई कारण नहीं कि उसका आस्रव बन्द न हो। क्योंकि ज्यों ही नौकाके छिद्र मूंद दिये जाते हैं त्योंही पानीकी एक बूंद भी उसके भीतर नहीं आ पाती है ।। ९३ ॥ निर्जरा यदि ऊनको किसी प्रकार धधकती हुई अग्निकी ज्वालाकी लपटें स्पर्श कर लें तो एक क्षणमें ही उसका विशाल ढेर भस्म हो जाता है । इसी विधिसे जब मुनियोंकी तपरूपी अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है तो पहिलेसे बँधे कर्म देखते-देखते ही नष्ट हो जाते हैं इसे ही निर्जरा-भावना कहते हैं ।। ९४ ॥ लोक भावना लोक जोवलोकके उत्पादक कारण प्रधानतया दो ( उपादान और निमित्त ) प्रकारके हैं प्रत्येक पर्यायके कार्य-कारण भाव निश्चित हैं। इसके प्रत्येक अंग और पर्यायमें आप कुछ पदार्थोंको उत्पन्न होते देखेंगे, कुछ समय बाद उन्हें लुप्त होता भी देखेंगे, और देखेंगे कुछ ऐसे तत्त्व जिनपर जन्म और मरणका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है। इसको स्थूल रूप देनेमें पृथ्वी आदि पाँचों अस्तिकायोंका प्रधान हाथ है तथा इसका रूप और आकार भो बड़ा विचित्र ( पैर फैलाकर कोई आदमी कमर पर हाथ रखकर खड़ा हो तो जो आकार बनेगा वही लोकका आकार ) है। यही लोक-भावना है ।। ९५ ॥ १. [ नौश्छिद्रवती तथैव ]। २. [ नावो यथा वारिविसंवृतायाः]। ३. [ लोको] चामाबाIRAIMIREPाम्यमान्यामाRUARPITAIN [६४९] E Jain Education intemational ८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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