Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 681
________________ R बराङ्ग चरितम् जातौ तिरश्चामय देवभावे मानुष्यके नारकदुःखयोनौ । जीवो घटीयन्त्रमिवास्वतन्त्रो बंभ्रम्यते संसृतिकल्पनैषा ॥८॥ द्वन्द्वत्रयव्याप्तिषु सर्वकालमेकोऽयमात्मा स्वकृतोपभोगी। आध्यात्मिकं बाह्यमिहापि वस्तु न किंचिदस्त्यत्र विचिन्तनीयम् ॥ ९ ॥ बेहात्मनो भेदविकल्पनायां संज्ञादिभेदं स्फुटमन्यथात्वम् । विद्वानथैकं कथमत्र कुर्यात्संगं पुमान्भणिनि कः शरीरे ॥१०॥ स्थानेन बीजेन तथाश्रयेण शश्वन्मलस्पन्दनसंप्रयोगात् । शरीरमावेदशुचीति मत्वा शुचित्वमस्मिन् विदुषा न कार्यम् ॥ ९१ ॥ एकत्रिंशः सर्गः ETRIETARIAGERRIA संसार प्रभाव कभी समस्त दुःखोंके भण्डार नरक योनिमें उत्पन्न होना, दूसरे समय तिर्यंच जातिमें भटकना, तीसरे अवसरपर मनुष्य पर्यायके चक्रमें पड़ना तथा अन्य समय देवगतिके विषय भोगोंमें भरमना इन्हीं आवागमनोंको संसार कहते हैं। इसमें पड़े जीव रहटको घड़ियोंके समान सर्वथा कर्मों के पराधीन होकर नीचे ऊपर आया जाया करता है ।। ८८ ॥ लाभ हानि, पाप पुण्य, शुभ-अशुभ आदि द्वन्द्वों तथा तोनों लोकों तथा कालोंमें यह आत्मा सदा अकेला हो चक्कर मारता है सदा ही अपने पूर्वकृत कर्मोंके शुभ तथा अशुभ फलोंको अकेले हो भरता है। जिन भावों आदिको आध्यात्मिक कहते हैं अथवा शरीर आदि समस्त बाह्य पदार्थ पुत्र-कलत्र आदि कोई भी इस आत्माके साथी नहीं है। यह जीव सर्वदा अकेला ही है । यही सब दृष्टियोंसे विचारणीय है ।। ८९ ।। अन्यत्व जब शरीर तथा आत्माके स्वरूप तथा गुणोंको अलग-अलग करके देखने लगते हैं तो इनका अन्यत्व स्पष्ट हो जाता " है, क्योंकि इनके नाम ही अलग नहीं हैं गुणों और स्वभावका भेद तो इससे भी अधिक स्पष्ट है। जो विवेकी हैं वह इन दोनोंमें ऐक्य कैसे कर सकता है क्योंकि कहाँ तो नित्य आत्मा और कहाँ क्षणभंगुर शरार ।। ९० ।।। अशुचित्व 1 [६४८ ] इस शरीरका बीज स्त्री तथा पुरुषका मल है, जिस स्थानपर बनता है वह भी मलमय है, स्वयं मलोंका भंडार है तथा इसके आँख, नाक, कान, मुख आदि नव द्वारोंसे मल ही बहता रहता है। शरीरके एक-एक अणुको प्रत्येक दृष्टिसे अशुचि ही 5 समझिये। किसी भी विद्वान्को इसे पवित्र समझने या बनानेका दुस्साहस नहीं करना चाहिये ॥ ९१ ॥ Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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