Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 670
________________ SA बराज एकत्रिंशः चरितम् कदाचिदुत्कृष्टतपःप्रभावो विविक्तदेशे स चतुर्दिनानि । चतुर्मुखस्थानगृहीतयोगं निनाय निष्कम्पतिर्महात्मा ॥ ४४ ॥ कदाचिदुच्छलमहागिरीणां सूयांशुभिस्तप्तमहाशिलासु। प्रलम्बहस्तः समपाददृष्टिस्तस्थौ महर्षिः स्वरजःक्षयाय ॥ ४५ ॥ कदाचिदाधुणितमण्डलानां सविद्युतां प्रक्षरतां घनानाम् । धारा भिघौताचलगात्रयष्टिस्तस्थौ महर्षिः स्वरजःक्षयाय ॥ ४६ ।। कदाचिदाणितमण्डलानां सविद्युतां प्रक्षरतां धनानाम् । धाराभिधौताचलगायष्टिस्तस्थौ रजन्यां स धनागमेषु ॥४७॥ सर्गः Uranusauthoriसन्चाRIALI समस्त अतिचारों आदिसे रहित उत्कृष्ट तपके कारण राजर्षिका प्रभाव बड़े वेगसे बढ़ रहा था। वे किसी अत्यन्त एकान्त स्थानपर चले जाते थे और वहाँपर चतुर्मखस्थान ( चारों दिशाओंमें क्रमशः मुख करके समाधि लगाना) योगको धारण करके चार दिन पर्यन्त थोडासा भी हिले डुले बिना एकासनसे बैठे रहते थे। उनका धैर्य अपार था ॥ ४४ ।। ऋतुतप ग्रीष्म ऋतु में कभी, कभी वे महापर्वतोंके बहुत ऊँचे-ऊँचे शिखरोंपर चले जाते थे। इन पर प्रातःकालसे संध्यापर्यन्त सूर्यकी प्रखर किरणें सीधी पड़ती थीं, जिससे शिलाएँ अत्यन्त उष्ण हो जाती थीं। राजर्षि अपने कर्मोरूपी मैलको गलानेके लिए । इन्हीं शिलाओंपर हाथ नीचे लटकाकर खड़े हो जाते थे उस समय उनकी दृष्टि पैरोंपर रहती थी॥ ४५ ॥ वर्षा योग जिस समय जोरोंसे उठी घनघटाके कारण एक ओर दूसरे छोर तक पूराका पूरा आकाश तथा भूमण्डल चंचल हो उठता था, बिजलीकी लगातार चमकसे सृष्टि भीत हो उठती थी, और मूसलाधार वृष्टि होती थी, ऐसे ही दारुण वर्षाकालमें वे N अपने पापों रूपी धूलिको धोनेके लिए खुले आकाशमें ध्यान लगाते थे ।। ४६ ।। घुमड़-घुमड़कर घिर आये बादलोंके कारण उस समय ऐसा लगता था कि पृथ्वी और आकाश एकमेक हो जायेंगे। इस भीषण घनघटामें निरन्तर बिजली चमकती थी और वृष्टि एक क्षणके लिए भी नहीं रुकती थी। एकके बाद दूसरी घटा उठती ही आती थी। ऐसे घनघोर वर्षाकालमें रात्रिके समय वे आकाशके नीचे योग धारण करते थे। उनके ध्यानस्थित शरीरपर रात्रिभर पानीकी प्रबल बौछारें पड़ती थीं तो भी शरीर निष्कम्प ही रहता था ॥ ४७ ।। १. क वाराभि । WARDHPareeramMAHATAIMIMPATHANE [६३७] PAHESHA For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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