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वराङ्ग चरितम्
गृहो [-]' ग्योभ्यवकाशयोगो प्रवाति वाता यति शीतले च । सुषारपातातिविरूक्षिताङ्गः कदाचिदासैकमनः प्रविष्टः ॥ ४८ ॥ कदाचिदत्यर्थमहोपवासैश्चान्द्रायणाद्यैः प्रथितैरनेकैः। कृशीकृताङ्गो नियमैर्यमैश्च मुनिः प्रचक्ने सुतपोऽतिघोरम् ॥ ४९ ॥ जिनेन्द्रसूत्रोक्तपथानुचारी संयम्य वाक्कायमनांसि धीरः। सुदुर्धरं कापुरुषैरचिन्त्यं द्विषट्प्रकारं तप आचचार ॥ ५० ॥ प्रसन्नभावात्सपसः प्रकर्षात्क्षमान्वितः स्वादशुभप्रणाशात् । अखण्डचारित्रवतो महर्षेरुत्पेदिरे तस्य हि लवधयस्ताः ॥ ५१ ॥
एकत्रिशः सर्गः
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शीतकाल प्रारम्भ होनेपर जब अत्यन्त शीतल पवन बड़े वेग और बलके साथ झकोरे मारता था। निरन्तर तुषारपात होता था, उस समय ही वे विधिपूर्वक अभ्यवकाश योग ( वृक्षादिकी छायाको छोड़कर बिना आड़के बिल्कुल खुले प्रदेशमें ध्यान लगाना) लगाते थे। शीतल अनिलके झकोरे अंग-अंगको रुक्ष करके फाड़ देते थे तो भी उनका मन चरम लक्ष्यपर ही एकाग्र रहता था ।। ४८॥
घोर शीत सहन यदि एक समय दीर्घतम उपवास करते थे, तो दूसरे अवसरपर ही चान्द्रायण आदि परम प्रसिद्ध अनेकों व्रतोंका पालन करते थे। यद्यपि इन सब नियमों और यमोंके निरन्तर पालनने राषिके शरीरको अत्यन्त कृश कर दिया था तो भी वे पूर्ण उत्साहके साथ धोरसे घोर सुतप करनेमें दत्तचित्त थे ।। ४९ ॥
जैनागम जैसा उपदेश करता है उसके अनुकूल साधना मार्गका अक्षरशः अनुसरण करते हुए मुनि वरांगने अपने मन, वचन तथा कायको पूर्णरूपसे वशमें कर लिया था। उनका धैर्य अपार था अतएव अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन तथा कायक्लेश, ये छह बाह्य तप तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप, कुल मिलाकर इन बारहों तपोंकी ऐसी साधना की थी जिसे करना अति कठिन था तथा विषयलोलुप भीरु पुरुष जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।। ५० ॥
घोरतपके ऐहिक फल राजर्षि वरांगका अन्तःकरण स्फटिककी भांति निर्मल हो गया था। तप इतना बढ़ गया था कि क्षमा उनकी जीवन सहचरी हो गयी थी। स्वादु पदार्थ तथा शुभ फलोंको अभिलाषा समूल नष्ट हो गयी थी। महाव्रतीके पूर्ण आचरणको साव१. क ( ° तयो.), [ गृहीतयोग्या' ] । २. [ वायावति° ] । ३. म प्रमाणात्, [क्षमान्वितत्वादशुभ.] ।
न्याचा RESPELATERIES
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