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वराङ्ग
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कूर्मो यथाङ्गानि निजे शरीरे स्पष्टः पुनः संहरतेऽन्तरन्तः । तथैव संसारभयावकृष्टः स्वानीन्द्रियाण्यात्मनि संजहार ॥ २८ ।। मोहातिरोगोद्धववातरोगं द्वेषाभिधानोदभवपत्तिकं च । तथैव हास्यानि च पञ्च धीमान्यमौषश्रेस्तान् शमयांबभूव ।। २९ ॥ कामोत्तरनं रतिवेगतोयं कषायफेनं विषयोरुमत्स्यम् । अगाधसंसारमहार्णवं तं विशोषयामास तपोबलेन ॥३०॥ त्रिगुप्तिधारेण दया'प्रभासा चारित्रवेगातिसमीरितेन । सम्यक्त्ववज्रेण निहत्य धीमान्विचूर्णयामास स कर्मशैलम् ।। ३१ ॥
एकत्रिश:
सर्गः
चरितम्
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अन्तर्मुख साधक कछएको जब कहींपर थोड़ा-सा भी छुआ जाता है तो वह हाथ पैर आदि सब हो अंगोंको अपने शरीरमें समेटने लगता है और ज्यों-ज्यों भय बढ़ता है त्यों-त्यों अपने अंगोंको और अधिक समेटता जाता है। इसो विधिसे सांसारिक भयोंसे त्रस्त होकर वरांगराजने अपनी पाँवों इन्द्रियों और नोइन्द्रिय मनकी प्रवृत्तियोंको अपने आत्मामें हो केन्द्रित कर लिया था॥ २८ ।।
आत्म स्वास्थ्य शारीरिक वातरोगके समान अत्यधिक बढ़ा हुआ मोह आत्माको भी वात रागके समान विवश तथा अचेतन कर देता है। द्वेष, आदि पाप-प्रवृत्तियाँ आत्मापर वही कुप्रभाव करती हैं जो विकृत पित्तका शरीरपर होता है तथा हास्य, रति, आदि पाँचों नोकषायें आध्यामित्क कफ दोषके समान हैं। मतिमान मुनि वरांगने इन आत्माके वात, पित्त और कफको यम ( आजीवन त्याग ) रूपो औषधि देकर पूर्ण शान्त कर दिया था ॥ २९ ॥
आशा सागर शोषण अनादि तथा अनन्त संसार अगाध समुद्रके तुल्य है । इस समुद्र में अभिलाषाओं तथा कामवासनाओंरूपी ऊंची-ऊंची लहरें उठती हैं। प्रेमके अवाध प्रवाह रूपो, चंचल जल लहराता है, क्रोध आदि कषायों रूपो विषाक्त फेन बहता है तथा इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थों रूपी बड़ी तथा भयंकर मछलियां गोते मारती हैं। इस विशाल समुद्रको भो उन्होंने तपको दाहसे सुखा दिया था । ३० ।।
कर्मपहाड़ दलन आठों कर्मोरूपी अभेद्य तथा उन्नत पर्वतोंको राजर्षि वरांगने सम्यक्त्वरूपी वज्रके प्रहारोंसे तोड़ ही नहीं दिया था अपितु चूर्ण-चर्ण कर दिया था, क्योंकि सम्यक्त्वरूपी वनपर तीनों गुप्तियों रूपी धार रखी गयी थी, दया धर्म ही उस शस्त्रकी १. म प्रभासी।
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