Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 665
________________ बराङ्ग चरितम् कषायचोरान्विषयारिवर्गान्परीषहान्तपरिमन्थि तश्च निवेदखनेन बलान्निगृह्य स खण्डशः कल्पितवाञ्जिताशः ॥ २४ ॥ उद्दामकामातिबलावलिप्तानपञ्चेन्द्रियारण्यमतङ्गजांस्तान् । तपोऽर्गलैरप्रतिभिद्य रूपैः क्षमोरुवीर्यान्निरुरोध धीरः ॥ २५ ॥ स मानसानिन्द्रियदुष्टचोरान्सद्धर्मरत्न प्रतिसंजिघृक्षुः । प्रज्ञातपःसंयमशृङ्खलाभिर्बबन्ध दृष्टानिव चोरवर्गान् ॥ २६॥ लोभोरुवैरान्सह रागभोगान्कामाशयान् क्रोधविषाप्रदंष्ट्रान् । इच्छास्फुटानिन्द्रियदुष्टसन्दियाम्बुसेकैः शमयांबभूव ॥ २७ ॥ एकत्रिंशः सर्गः क्रोध आदि कषायें आध्यात्मिक संपत्तिके लिए चोर हैं, इन्द्रियोंके विषय ही प्रबल शत्रु हैं, परीषह आदि तो आत्माके अन्तरंग तथा घातक शत्रु हैं। इन सबको राजर्षिने आत्मबलसे बलपूर्वक घेर लिया था और वैराग्यरूपी तलवारके द्वारा इनके टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे ॥ २४ ।। बाशा विजय आशारूपी दानवीके विजेता राजर्षिने पाँचों इन्द्रियोंरूपी जंगली तथा उद्दण्ड हाथियोंको भी धीरज पूर्वक क्षमारूपी । विशाल शक्तिका प्रयोग करके रोका था और तपरूपी स्तम्भसे-जिसे तोड़ना उनके लिए असंभव हो गया था-कसके बाँध ! दिया था। यद्यपि किसीके भी वशमें न आनेवाला प्रदीप्त कामरूपो महाशक्तिके बलका उन्हें ( इन्द्रियों ) अहंकार था तो भी है राजर्षिकी क्षमा युक्तिने उन्हें एक पग चलना तक असंभव कर दिया था ॥ २५ ॥ इन्द्रिय चोर मानसिक विकार तथा पाँचों इन्द्रियाँ निर्दय चोरोंके समान हैं, जब तक इनका वश चलता है ये सत्य धर्मरूपी रत्नको ले भागनेका ही प्रयत्न करते हैं । किन्तु मुनि वरांगने यथार्थ प्रकाशक प्रज्ञा, घोर तप और संयमरूपी सांकलोंके द्वारा लौकिक चोरों तथा दुष्टोंके समान ही इन इन्द्रिय चोरोंको भी कठोर बन्धनमें डाल दिया था। मनुष्यको विषय लोलुप इन्द्रियाँ प्राणान्तक विषपूर्ण साँपके ही समान हैं, स्पर्श आदि विषयोंकी चाह ही इन साँपोंको गुंडी हैं ।। २६ ॥ सब अभिलाषाएँ ही इनका दुष्ट अन्तरंग है तथा क्रोध कषाय ही वह डाढ है जिसमें आशीविष रहते हैं । जीवका लोभ ही वह वैर है जिसको प्रतिशोध करनेके लिए इन्द्रिय सर्प बार-बार डंक मारते हैं। इन साँपोंको भी वरांगराजने दयारूपी मंत्रपूत । जलके छींटे देकर शान्त कर दिया था ।। २७ ।। १. [° परिपन्थिनश्च ]। २. क बलान्विगृह्य । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education international

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