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बराज चरितम्
अत्युच्छ्रितैः केतुभिरुज्ज्वलातः सितातपत्रैर्वरचामरैश्च । ध्वजैरनेकर्नयनाभिरामैगच्छन्बभौ शक्र इवावनीन्द्रः ॥ ५२ ।। मदनशब्दैः पटहस्वनैश्च शतप्रणादैगजवाजिघोषैः । पुण्यैर्वचोभिर्वरमागधानामभूद्धवनिः क्षुब्धसमुद्रतुल्पः ॥ ५३॥ पौरैजनवर्षच'रैरमात्यः
सामन्तवगै पपुङ्गवैश्च । पदातिनागाश्वरथाधिरूढैवतो गृहेभ्यो निरगान्नरेन्द्रः ॥ ५४ ॥ रथैश्च काश्चिद्वरवाजियानैर्मनोहराभिः शिविकाभिरन्याः । धर्मक्रियायां विनिवेश्य बुद्धि नृपाङ्गना भूपतिनैव याताः ॥ ५५ ॥
तीन प्रदक्षिणाएं की थीं। इस प्रकार अन्तिम पूजाको समाप्त करके वे जिनालयके बाहर आये थे और उस पालकीपर आरूढ़ हुए थे जिसकी प्रभा सूर्यकी प्रखर किरणोंके उद्योतका भो तिरस्कार करती थी।। ५१ ।।
महा-निष्क्रमण वरांगराजकी पालकीके आगे-आगे गगनचुम्बी केतु लहराते जा रहे थे। उस समय भी पालकीके ऊपर धवल निर्मल छत्र शोभा दे रहा था तथा चमर दर रहे थे। इनके अतिरिक्त आगे-पीछे अनेक ध्वजाएं फरफरा रही थीं, इनकी शोभा नेत्रोंमें घर कर लेती थी। इस दम्भहीन रूपसे वनको जाता हुआ राजा इन्द्र के समान लगता था ।। ५२ ।।
'तिन पद घोकहमारी' मृदंग जोरसे पिट रहे थे, पटहोंकी ध्वनि भो तीव्र ओर गम्भीर थी, शंखोंकी घोषणा आकाशको व्याप्त कर रही थी। हाथियोंकी गम्भीर चिंघाड़ थी, घोड़े हिनहिना रहे थे, तथा मागध जातिके देव वैराग्य भावनाको पुष्टिमें सहायक पुण्यमय कीर्तन करते जा रहे थे। इन सब ध्वनियोंने मिलकर उस रोर (तीव्र ध्वनि) को उत्पन्न कर दिया था जो कि समुद्रके क्षुब्ध होनेपर होता है ।। ५३ ।।
बड़े-बड़े माण्डलिक राजा, प्रधान आमात्य, सामन्तोके झुण्ड, अनेक श्रेष्ठ नृपति, आनर्तपुरके नागरिक, अन्य सेवक तथा अनुरक्त जनोंके साथ ही सम्राट वरांग अपने राजघरसे बाहर हुए थे। उस समय भी उनको पदाति, गजारूढ़, अश्वारोही तथा रथिकोंकी सेना घेरे हुए थी ।। ५४ ।।
यथार्थ धर्मपत्नी सम्राट वरांगकी सब ही रानियोंने धर्मसाधनामें ही अपने चित्तको लगा दिया था अतएव वे सब भी प्राणपतिके साथ१. [ °वर्षघरै ]।
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