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बराज चरितम्
एकोन
चतुर्गतीनामसुखान्वितानां योनिष्वनेकासु चिरं भ्रमित्वा । दुःखान्यनेकान्यनुभूय तत्र श्रान्तो भवन्तं शरणागतोऽस्मि ॥ ८०॥ नालिङ्गितो यो रजसा कदाचिन्नोपप्लुतो जन्मवियोगशोकः । मृत्योरनालोढपदप्रचारो नयस्व मां देशमुषे तमाशु ॥१॥
मुनीन्द्रस्तदनुग्रहायावदन्महामेघगभीरनादः । यथा सुखं त्वं विषयेषु राजन्नास्स्व प्रसाक्षीरिति संदिदेश ? ॥२॥ विशुद्धजात्यादिसुदुर्लभत्वं सद्धर्ममार्गे प्रतिबोधनं च । विमुक्तिधर्माभिसुदुष्करत्वं सर्वं तदाचष्ट गणप्रधानः॥८३॥
त्रिंशः
ततो
सर्गः
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दारुणसे दारुण दुखोंके भण्डार नरक आदि चारों गतियोंकी असंख्य योनियोंमें अनादिकालसे टक्कर मार रहा हूँ। वहाँपर अनगिनते दुखोंकी ठोकरें खाते खाते मैं सर्वथा श्रान्त हो गया हूँ, अब, और एक पद भी चलनेकी सामर्थ्य शेष नहीं रह ॥ गयी है, इसीलिए आपकी शरणमें आया हूँ ।। ८०॥
हे ऋषिराज ! मुझे कृपा करके उसी देशमें ले चलिये जिसमें कुकर्मोकी धूलि उड़ती ही न हो, जिसकी शान्तिको भंग करके जन्म तथा मरणके तूफान न उठते हों तथा जिस पवित्र स्थानपर मृत्युकी गति ही नहीं, अपितु उसके चरणोंने छुआ भो न हो । हे प्रभो, देर मत करिये ।। ८१ ॥
चारित्रमेव वरांगराजकी उक्त प्रार्थनाको सुनकर केवली महाराजने उसके कल्याणको भावनासे प्रेरणा पाकर उसे समझाना प्रारम्भ किया था। महाराजकी कण्ठध्वनि विषयको गम्भीरताके अनुकूल मेघ गर्जनाके समान गम्भीर शान्त थी। उन्होंने कहा था-हे राजन् ! अब आप इन्द्रियोंके विषयों में लीन मत रहिये, अपनी शक्तिके अनुसार जितनी जल्दी हो सके उन्हें छोड़िये ।। ८२॥
गणधरोंके प्रधान श्रीवरदत्त केवलीने राजाको सब ही बातें समझायी थीं, विशेषकर यह दिखानेका प्रयत्न किया था कि विशुद्ध कुल, शरीर, मति आदि पाना कितना कठिन है, ये सब पाकर भी सत्य धर्मको पाना और उसे हृदयंगम करना और भी दुष्कर है, इतना यदि किसी उपायसे हो भी जाय तो सद्धर्मके पालन करनेकी प्रवृत्ति तथा अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेना तो अत्यन्त ही दुष्कर है ॥ ८३ ।।
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