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बराङ्ग चरितम्
क्षितीन्द्रपल्यः कमलायताक्ष्यो विचित्ररत्नप्रविभूषिताङ्गघः । परीत्य भक्त्यार्पितचेतसस्ता नमः प्रकुर्वन्मुनयो प्रहृष्टाः ॥ ९२ ॥ ततो हि गत्वा श्रमाणाजिकानां समीपमभ्येत्य कृतोपचाराः । विविक्तदेशे विगतानुरागा जहुर्वराचो वरभूषणानि ।। ९३ ।। गुणांश्च शीलानि तपांसि चैव प्रबुद्धत्तत्त्वाः सितशुभ्रवस्त्राः । संगृह्य सम्यग्वरभूषणानि जिनेन्द्रमार्गाभिरता बभूवुः ॥ ९४ ॥ मन्त्रीश्वरामात्यपुरोहितानां पुरप्रधानद्धमतां गृहिण्यः । नृपाङ्गनाभिः सुगतिप्रियाभिदिदीक्षिरे ताभिरमा
तरुण्यः ॥ ९५ ॥
पतिपरायणा पत्नियां
सम्राट वरांगके साथ-साथ उनकी रानियाँ भी गयी थीं, यद्यपि वे विचित्र आभूषणों तथा रंग बिरंगे वस्त्रोंसे सुसज्जित तो भी उनकी कमलों समान सुन्दर, सुकुमार तथा बड़ी-बड़ी आँखोंसे वैराग्य टपक रहा था। उनका चित्त भक्ति रससे ओत-प्रोत था । धर्मं साधनका शुभ अवसर पा सकनेके कारण वे अत्यन्त प्रसन्न थीं । फलतः इन्होंने भी परिक्रमा करके ऋषिराजके चरणों में प्रणाम किया था ।। ९२ ।।
इसके उपरान्त वे क्रमशः अन्य मुनियों और आर्यिकाओंके समीप गयी थीं, तथा आगमके अनुकूल विधिसे उस सबकी विनय तथा वन्दना की थी। वन्दना समाप्त होते ही वे सब सुन्दरियाँ किसी एकान्त स्थानमें चली गयी थीं और वहाँपर उन्होंने उन महा मूल्यवान आभूषणों आदिको उतारकर भूमिपर डाल दिया था ।। ९३ ॥
क्योंकि वे संसारकी ममता मोहको छोड़ चुकी थी । लज्जा ढकनेके लिए उन्होंने तब केवल एक श्वेत सारी धारण कर ली थी । सोने मणियोंके शारीरिक भूषणोंके स्थानपर उस समय उन्होंने महाव्रतीके गुणों तथा शीलों रूपी आत्माके भूषणोंको धारण किया था। धर्मके तत्त्वोंको भलीभाँति समझकर उन सबने जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट सत्य मार्गके विधिवत् पालनमें मन लगा दिया था ॥ ९४ ॥
अन्य विरक्त
महामंत्रियों की पत्नियों, राजाके गुरुजनोंकी जीवन सहचरियों, आमात्य, पुरोहित, नगरके श्रेष्ठी तथा गणोंके प्रधानों तथा सम्पन्न नागरिकों की प्राणाधिकाओंने देखा कि अनन्त सुख भोगकी अधिकारिणी राज बधुएँ भी अपने अगले भवोंको सुधारने के लिए दीक्षा ग्रहण कर रही थीं फलतः उन सब तरुणियोंको विषयरत रहना अशक्य हो गया था और उन्होंने भी तुरन्त ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी ।। ९५ ।।
१. [ प्रचक्रमु नये ] |
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एकोन
त्रिंशः
सर्गः
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