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वराङ्ग
चरितम्
संत्यज्य मष्टाशनपानखाद्यं स्वाद्यानि वर्णेन्द्रियवर्धनानि । तपोऽभिवद्धचै रसहीनमन्नं प्राभुज्जताहं न च रात्रिभागे ॥५६॥ उत्पादनं चोद्गमनं सदोषं संयोजनं क्रोडकृतं पुराणम् । अज्ञातमन्नं हरितं त्वदृष्टं विजितं तन्मुनिभिस्त्वयोग्यम् ॥ ५७ ॥ अस्वादुकं निर्लवणं विशुद्धं स्निग्धं च रूक्षं विरसं विवर्णम् । अशीतलं वाथ सुशीतलं वा ववल्भिरे तच्च तपोऽभिवृद्धयै ॥ ५८ ॥ प्रतप्तलोहे पतितोऽम्बुबिन्दुर्यथा क्षयं तत्क्षणतोऽभ्युपैति । तथा विलिल्ये यतिभिः प्रभुक्तं कदन्नमध्यल्पतया शरीरे ॥ ५९॥
त्रिंशः सर्गः
चमचाseaweTAGEचामान्यायमचारी
नीरसभोजन रत चिक्कणता बहुल गरिष्ठ भोजन, पान, आदि आहारोंको उन्होंने सर्वथा छोड़ दिया था। स्वादु भोजनकी भी उन्हें अभिरुचि न थी। ऐसा भोजन तो भूल कर भी न ग्रहण करते थे जो इन्द्रियोंको उदीप्त करे अथवा सौन्दर्य आदिको बढ़ाये। शरीरको तपस्याके योग्य बनाये रखने के लिए ही वे नीरस भोजनको केवल एक बार ग्रहण करते थे और वह भी दिनमें हो, रात्रिको तो किसी भी अवस्थामें कुछ भी ग्रहण न करते थे ।। ५६ ।।
वह अन्न जिसमें अकुर आदि पड़ सकते हों, एक स्थानपर पकाकर दूसरे स्थानपर लाया गया भोजन, दोषयुक्त विधिसे तैयार किया गया, इधर-उधरसे लाकर इकट्ठा किया गया, विकार उत्पन्न करनेवाला सदोष भोजन, प्राचीन अथवा वासी भोजन, ऐसी वस्तु जिसे वे जानते न हों, हरा पदार्थ, विधिपूर्वक न शोधा गया तथा वह सब पदार्थ जिनका खाना वजित है, इन सब पदार्थोको त्यागकर वे सोधा सादा मुनिके योग्य आहार ग्रहण करते थे ।। ५७ ॥
बहुत उष्ण अथवा बिल्कुल शीतल, घृतादि युक्त अथवा सर्वथा सूखा, किसी भी स्वादसे हीन अथवा बिना नमकका, सब रसोंसे हीन तथा आकर्षक रंगरूपसे भो दूर पवित्र भोजनको वे किसी भी प्रकारसे गलेके नीचे उतार देते थे क्योंकि तप बढ़ाने। के लिए शरीर यन्त्रको चालू रचना ही उनका चरम लक्ष्य था ॥ ५८ ॥
खूब तपाये गये लोहे के तवेपर यदि पानीकी कुछ बूंदें छोड़ी जाय तो वे सब बूंदें एक क्षणमें ही न जाने कहाँ लुप्त हो । जाती हैं, इसी प्रकार मुनिवर किसी भी रस रूपके शुद्ध भोजनको अपने उदरमें डाल देते थे और वह नीरस भोजन भी मात्रामें । थोड़ा होनेके कारण थोड़े ही समयमें उनकी उदराग्निमें भस्म हो जाता था ॥ ५९॥
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RURALEnainचामारामार
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