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वराङ्ग चरितम्
चतविधन्यासपदप्रपञ्चं नयप्रमाणानि च मार्गणानि । अष्टप्रकाराननुयोगभावास्त्रिपञ्चकांश्चैव गुणप्रभेदान् ॥८॥ त्रिलोकसंस्थोगतिमागतिं च स पुण्यपापानवसंवरांश्च । बन्धं च मोक्षं च शिवप्रमेयं मुनिर्मुनिभ्यः कथयांबभूव ॥९॥ श्रुत्वा मुनीन्द्रोदितमप्रमेयमहीनसत्त्वाः शिवसिद्धिमार्गम् । शीलान्यथादाय महाव्रतानि सद्यस्तमाचारमधीयते स्म ॥१०॥ ततः सशान्तं शिवदत्तसंज्ञं दयापरं क्षान्तिमुदारवृत्तम् । आधारभूतं नवसंयतास्ते प्रपेदिरे संयमसाधनाय ॥ ११ ॥
ANDEEPARADEMANTRatoमाया
ज्ञायकविचार नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भावके भेदोंसे चार प्रकारके निक्षेप, शब्दनयका प्रपञ्च तथा अंग आदिके पदोंकी गणना, । नेगम आदि सातों नय, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण ( सांव्यहारिक-परमार्थिक प्रत्यक्ष, परोक्ष-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान
तथा आगम) चौदहों मार्गगाओं, आठों प्रकारके अनुयोग तीन प्रकारके भाव तथा पाँचों गुणोंका भी विशद विवेचन किया था।॥८॥
त्रिलोकसार तीनों लोकोंकी रचनाका विशेष वर्णन उनमें एक स्थानसे दूसरे स्थानको आने-जानेका क्रम, पुण्य तथा पाप कर्मोका आस्रव, इनका बंध, संवर तथा निर्जरा तथा मोक्ष जो कि मूर्तिमान कल्याण हो है तथा जिसके स्वरूपका अनुमान नहीं किया जा सकता है। इन सबका पूर्ण उपदेश केवली महाराजने दिया था ।। ९ ।।
महाराज वरदत्त केवलीने जो उपदेश दिया था उसके महत्त्वका अन्दाज लगाना भी अशक्य था। वह मोक्ष प्राप्तिका । साक्षात् उपाय था अतएव उसे सुनकर हो सब नूतन दीक्षित मुनि और आर्यिकाएं सप्तशोलों को ग्रहण करके तुरन्त ही पञ्च महाव्रतोंकी साधनामें लीन हो गये थे, क्योंकि इन सबको आत्मिक शक्ति और साहस साधारण न थे ॥ १० ॥
आचार्यशरण केवली महाराजसे पूर्ण उपदेश प्राप्त करके समस्त नतन संयमी लोग संयमको साधना करनेकी अभिलाषासे आचार्य वरदत्तजीके चरणोंमें गये थे। आचार्यश्री मूर्तिमान शान्ति थे, दया उनका स्वभाव थो उनका महा चारित्र निर्दोष तथा पूर्ण विकसित था । इन्हों योग्यताओं के कारण वे समस्त साधुओंको तप साधनाके मूल आधार थे ॥ ११ ॥ १. [ संस्थां ]। २. [ मोक्षं शिवमप्रमेयं ]। ३. [ ततश्च शान्तं ]। ४. [ क्षान्त ] । ७७
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