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त्रिंशः
वराज चरितम्
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त्रिंश सर्गः गतेषु तेषु प्रियबान्धवेषु स्वेभ्यः पुरेभ्यो मुनिसंकथाभिः । दीक्षां प्रपन्ना' जहष सिंहा वारीविमुक्ता इव मत्तनागाः ॥ १॥ निरस्तभूषाः कृतकेशलोचाः प्रसन्नबुद्धीन्द्रियशुद्धभावाः। धर्मानुरक्ता मुनिराजपाश्वं प्रपेदिरे साञ्जलयो यथार्हम् ॥२॥ उपाश्रितांस्तान्कृतमूनिहस्तान्विलोक्य साधून्विगतेन्द्रियाशान् । स्वभावतो भव्यजनानुकम्पी व्रतोपदेशं कथयांबभूव ॥३॥ स्थानानि जीवस्य चतुर्दशानि तथैव हि स्थातुचरिष्णुतां च । सम्यक्त्वमिथ्यात्वविमिश्रितत्वं शशंस सम्यक्सफलं यतिभ्यः ॥४॥
त्रिंश सर्ग
वियोगीजन वरांगराज तथा अन्य सबही मुमुक्षु जीवोंके दीक्षा संस्कारकी समाप्ति हो जानेपर सम्राटके स्नेही तथा प्रिय बन्धुबान्धव तथा अन्य सब दीक्षित सज्जनोंके स्वजन ( घरके लोग) किसी प्रकार ढाढस बाँध कर अपने-अपने नगरोंके लिए लौट पड़े थे। वे रास्ते में मुनियोंकी चर्चा करते हुए चले गये थे। इधर जिन पुरुषसिंहों तथा ज्ञानमती देवियोंने दीक्षा ग्रहण की थी। उनकी प्रसन्नता उसी सीमा तक जा पहुंची थी जिसको कीचड़से उभरे हाथीका आह्लाद स्पर्श करता है ।।१।।
तपरत योगिनिएँ नव दीक्षित आयिकाओं तथा मुनियोंने समस्त आभूषण उतार डाले थे, सबने ही विधिपूर्वक केशलोंच किया था। मोह ममताको पाशसे छूट कर बुद्धि निर्मल तथा इन्द्रियाँ सत्पथ-गामिनी हो गयी थीं। मानसिक विचार शुभ तथा शुद्ध हो गये। ॥ थे। आपाततः धार्मिक रुचि पूर्ण विकासको प्राप्त हुई थी। संयम, साधना आदिके रहस्यको जाननेके लिए वे सब महाराज वरदत्तकी सेवामें हाथ जोड़े हुए गये थे, अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठ गये थे ।। २॥
दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक लगाये हुए इन सब साधुओंको जब केवली महाराजने अपने पास बैठा देखा तो पलक मारते ही वे समझ गये थे कि इन सबने पाँचों इन्द्रियोंके विषयों तथा आशाको जीत लिया है। केवली महाराज बाह्य प्रेरणाके A बिना ही अन्य जीवों पर दया करते थे अतएव उन्होंने इन सबको महाव्रतोंकी चर्याके विषयमें विशेष उपदेश दिया था ॥३॥ [६०७]
चौदह गुणस्थान पूर्ण लोकमें व्याप्त स्थावर तथा जंगम जीवोंको उनके भावोंकी अपेक्षासे चौदह श्रेणियोंमें बांटा है, शास्त्रोंमें इन १.कम श्रीनेमिनाथाय नमोऽस्तु तुम्यम् । नमोऽस्तु नारायणदर्पहारिणे ॥ २. क प्रसन्ना। ३. [ सम्यक्त्वफल'] ।
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