________________
बराङ्ग चरितम्
अन्य
'ऊर्ध्वा दिवार्थी प्रदहत्यभीक्ष्णं पार्श्वे च वायौ परुषेऽतिवाति । अधः पुनस्तप्तमहाशिलासु स्थित्वा प्रढेकुर्धनकर्मकक्षम् ॥ ३६ ॥ निदाघतीक्ष्णार्क कर प्रहारानुरस्स्वथादाय निरस्तपापाः ।
अस्तं प्रयाते च रवौ यतीशाः पराङ्मुखेरा विवनेवतेरुः ॥ ३७ ॥ विशिष्ट वातातपवर्ष तृप्ताः क्षुद्याधिरोगारतिरोषणानि ।
प्रसेहिरे कर्म रजःक्षपाय महर्षयो मन्दरजः प्रकम्प्याः ।। ३८ ।। वीरासनस्वस्तिकदण्डशय्याः पत्यवजोत्कुटिकासना महाद्विकुक्षिष्त्रभिरेमिरेते ॥ ३९ ॥
ये ।
स्थानव्रता मौनपराश्व धीरा
शिरपर मध्याह्नका सूर्य चमकता था जिसकी प्रखर किरणोंसे सारा वातावरण ही अग्नि ज्वालामय हो रहा था। उनके चारों ओर अत्यन्त उष्ण तथा रूक्ष तीव्र पवन बहता था। जिस शिलापर बैठते थे वह भी जलने लगती है फलतः नीचेसे उसकी दाह रहती है। इस प्रकार सब तरफसे धधकती हुई ज्वालामें वे अपने कर्मों रूपी सघन वनको भस्म करते थे ।। ३६ ।।
इस दुर्द्धर तपको करने से उनके पाप नष्ट हो गये थे, इसीलिए ग्रीष्मऋतुके प्रचण्ड सूर्यकी प्रखर किरणोंसे भीषण प्रहारोंको वे कि सीधे अपने वक्षस्थलपर रोकते थे, और वहीं पर ध्यानमग्न रहते थे किन्तु जब सूर्य अस्त हो जाता था तब वे ऋषिराज आतापन योगको समाप्त कर देते थे और पर्वतोंकी गुफाओंकी भीषण दाह में रात्रि व्यतीत करते थे ॥ ३७ ॥
उपसर्ग - परीषह जय
वर्षा, शीत तथा ग्रीष्म ऋतुकी पीड़ाओंको उक्त विधि से विशेष आकार और प्रकारमें सहकर ही विरत नहीं हो जाते थे अपितु कर्म शत्रुओं का क्षय करनेके लिये भूख, प्यास, रोग, अरति, अकारण क्रोध, आदि उपसर्गों को प्रसन्नतासे सहते थे 1 इतना सब सहकर भी वे सुमेरु पर्वत के समान अपनी साधना में सर्वथा अकम्प थे ।। ३८ ।।
यदि एक समय वीरासन, स्वस्तिकासन, खड्गासन तथा शय्यासन लगाकर ध्यान करते थे, तो दूसरी वेलामें वे पल्यंकासन, वज्रासन तथा उत्कुटकासन लगाये दृष्टिगोचर होते थे। वे महा पर्वतों की गुफाओंमें वास करते थे वहाँपर कभी स्थानका नियम करते थे तो दूसरे समय मौनव्रत धारण कर लेते थे ।। ३९ ।।
१. [ ऊर्ध्वं ]
२. क पुरुषे ।
३. म प्रसेदेकुर्धन; [ प्रदेहुर्धन° ]।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
४. [ विवरेऽवतेरुः ] |
त्रिंशः
सर्गः
[६१६]
www.jainelibrary.org