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वराङ्ग चरितम्
एवं तपः शीलगुणोपपन्ना व्रतैरनेकैः कृशतामुपेताः । area: स्थितसत्त्वसारास्तेपुः सुतोव्राणि तपांसि शूराः ॥ ४० ॥ निवृत्त लोकव्यवहारिणस्ते जिनेन्द्रवाक्यानुनयप्रवीणाः । धर्मानुरागोद्यतधीरचर्या ध्यानैकतानाः सततं बभूवुः ॥ ४१ ॥ तपोभिरापीडित सर्वगात्रा महर्षयो निश्चलमानसास्ते । पुरात्मसंक्रीडितकामभोगान्न चैव कांश्चिन्मनसा विदध्युः ॥ ४२ ॥ एकान्तशीला विगतान्तरौद्राः प्रशान्तरागाः श्रुतवीर्यसाराः । ध्याने पुनस्ते खलु धर्मशुक्ले दध्युः शुभे पापविनाशनाय ॥ ४३ ॥
'तपरमा तनो तनमें प्रकाश'
इस कठोर मार्गका अनुसरण करके उन्होंने तपस्या, शील तथा साधुपरमेष्ठीके गुणोंको प्राप्त किया था। सदा ही भाँति, भाँति अनेक व्रत धारण करनेके कारण उनकी काय अत्यन्त कृश हो गयी थी। तो भी उनका आत्मिक बल और सहनशक्ति ज्योंकी त्यों बनी हुई थी । चर्या में कहीं से भी कोई शिथिलता नहीं आ रही थी। तथा प्रतिदिन वे तपोंकी साधना करनेमें लीन थे ॥ ४० ॥
नूतन - नूतन
इन तपस्वियोंने संसारके समस्त व्यवहारोंको दूर भगा दिया था। श्रीवीतराग केवलीकी दिव्य-ध्वनिसे निकले आगम वचनों के मनन तथा आचरगमें लोन थे । धर्मके प्रति उनका अथाह अनुराग था, कठिनसे कठिन चर्या में उन्हें अक्षय उत्साह था । और सदा ध्यान लगाकर वे सब कुछ ही भूल जाते थे ॥ ४१ ॥
तपः क्लिष्ट काय
वर्षो से लगातार किये गये कठिन तपके कारण यद्यपि उनके शरीरका अंग-अंग कृश हो गया था तो भी उन महर्षियों के मन तथा हृदय सदा ही अडोल अकम्प थे । यद्यपि गृहस्थाश्रम में उन सबने मनचाहे भोग और विषयोंका आनन्द लिया था तो भी प्रव्रज्या ग्रहण करनेके बादमे उन्हें कभी उनका थोड़ा-सा विचार भी न आया था ॥ ४२ ॥
एकान्त में रहकर साधना करना उनका स्वभाव हो गया था। उनके अन्तरंग में आतं तथा रौद्र भावोंकी छाया भी न रह गयी थी । राग द्वेष सर्वथा शान्त हो गये थे। शास्त्रीय ज्ञान ही उनका पराक्रम और सामर्थ्यं थी, किन्तु इतना करने पर भी पाप कर्मोंका पूर्ण नाश न हुआ था, फलतः उनका समूल नाश करनेके लिए उन्होंने धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानकी प्रक्रियाको अपनाया था ॥ ४३ ॥
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त्रिंश:
सर्गः
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