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बराङ्ग चरितम्
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ततो नृपो निर्वृतिसौल्परामः स्वपुत्रसंक्रामितराज्यभारः । विमुक्तसंगः स्वजनेन साधं जगाम तूर्ण जिनदेवगेहम् ॥ ४८ ॥ तत्रार्हतामप्रतिशासनानामष्टाह्निको शिष्टजनैश्च जुष्टाम् । यमोपवासा व्रत यन्त्रितात्मा चकार पूजां परयाविभूत्या ॥ ४९ ॥ पूजावसाने प्रतिमापुरस्तात् स्थित्वा महीन्द्रः सुविशुद्धलेश्यः । स्तुत्वा जिनानां तु गुणानुदाराजग्राह शेषां मुदितान्तरात्मा ॥५०॥ स्तोत्रावसाने प्रणिपत्य देवान्प्रदक्षिणीकृत्य जिनेन्द्रगहम् । आरुह्य राजा शिविकामना दिवाकरांशुद्युतिहारिणी ताम् ॥ ५१॥
एकोनत्रिंशः सर्गः
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'छोड़ वसे वन' राज्यारोहण संस्कारके समाप्त होते ही सम्राट वरांग, अपने आत्मीयजनोंके साथ तुरन्त ही जिनालयको ओर चल दिये थे, क्योंकि वैराग्यमें जो अनुपम सुख है उसपर ही उनका आकर्षण था। अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्रको उन्होंने समस्त राजपाट सौंपकर उसके दायित्वोंसे मुक्ति पा ली थी॥ ४८ ॥
इन उपायोंसे उन्होंने आभ्यन्तर और बाह्य दोनों परिग्रहोंसे छुट्टी पा ली थी। जैसा कि पहिले कह चुके हैं सम्राट वरांगको विश्वास था कि जैनधर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है फलतः उन्होंने उस धर्मके आदर्श अर्हन्त प्रभुको शिष्ट पुरुषोंके साथ अष्टाह्विक पूजाकी थी इस पूजाकी महार्घ सामग्री तथा अलौकिक सजधज अभूतपूर्व थो। पूजाके दिनोंमें वरांगराजने उपवास, व्रत तथा यम ( जीवन पर्यन्त त्याग ) ग्रहण करके अपने आत्माको सब दृष्टियोंसे नियंत्रित कर दिया था ॥ ४९ ।।
अष्टाहिकपूजा । इस कठोर साधनाने वरांगराजकी दोनों लेश्याओं ( वर्ण-विचारों ) को अति विशुद्ध कर दिया था। जब पूजाविधि समाप्त हुई तब सम्राट आनन्दनिभोर होकर वीतराग प्रभुकी मूर्तिके सामने खड़े हो गये थे । भक्तिसे द्रुत होकर वे कर्मजेता जिनेन्द्र-
के विशाल गुणोंकी स्तुति कर रहे थे और एक विचित्र अन्तरंग सुखका अनुभव करते हुए उन्होंने पूजाकी शेषा ( आशिष ) E को ग्रहण किया था ॥ ५० ॥
जब स्तोत्र पाठ समाप्त हो गया तब उन्होंने जिनविम्बको साष्टांग प्रणाम किया था। इसके उपरान्त पूरे जिनालयकी ।
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