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बराङ्ग
एकोन
चरितम्
भृत्यांश्च मित्राण्यथ कोशदण्डानमात्यवर्गाज्जनतां च दुर्गान् । बुधैश्च पूजा यदि वाञ्छसि त्वं कुर्वात्मनात्मानमतीव पात्रम् ॥ ४० ॥ भूयोऽहतां शासनमागमस्थान्सज्ज्ञानचारित्रतपोविशुद्धान् । चविध संघमथात्मशक्त्या भजस्व सन्मानय सादरेण ॥४१॥ गुणैरुपेता गुरवो बहुजा ये शिष्य'यन्त्यात्मसुतान् हिताय । सतत्त्वसवं बहु शिष्ययित्वार समर्पयामास सुतं गुरुभ्यः ॥ ४२ ॥ ततो नृपैर्मन्त्रवरप्रधानः सामन्तमुख्यैरभिषिच्य सार्धम् । बबन्ध पढें स्वयमेव राजा प्रजाहितार्थ कुलवृद्धये च ॥४३॥
त्रिंशः
सर्गः
सफलताकी कुंजी यदि आज्ञाकारी सेवक चाहते हो, अभिन्न हृदय मित्र चाहते हो, असीम कोश, अनुल्लंघ्य दण्ड, राज्यभक्त आमात्य, एवं सदा अनुरक्त प्रजाकी अभिलाषा करते हो, अमेद्य किलोंके नियंत्रण करनेको उत्सुक हो, तथा इन सबसे भी बढ़कर विद्वानोंके द्वारा समर्पित सन्मानको प्राप्त करनेके लिए उत्कंठित हो तो अपनी निजी साधनाके द्वारा अपने आपको इस सबका पात्र बनाओ ।। ४० ॥
लौकिक योग्यताओंके अतिरिक्त, भगवान अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट धर्मको मत भूलो। जो शास्त्रज्ञ हैं उनकी सत्संगति करो। जो तपस्वी सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक-चारित्र रूपी आभूषणोंसे भूषित हैं उनका सहवास करो, तथा मुनिआयिका, व्रती श्रावक तथा श्राविकाओंसे युक्त चतुर्विध संघको जब-जब अवसर मिले अपनी सुविधा तथा शक्तिके अनुसार। सादर वन्दना करो ॥ ४ ॥
जो गुरुजन स्वयं गुणी तथा विद्वान होते हैं वे अपने पुत्रको उसके हो कल्याणके लिए अपनी बहुज्ञताके अनुकूल उपदेश देते हैं । इसी परम्पराके अनुकूल वरांगराजने जो-जो कुछ भी उपयोगी हो सकता था वह सब कुमार सुगात्रको भलीभाँति समझाकर उसे अपने पूर्वजोंको सौंप दिया था ।। ४२॥
'राज्य दियो बड़भागी' अन्तिम उपदेश समाप्त होनेके उपरान्त हो वरांगराजने गुरु तथा मित्र राजाओं, प्रधान आमात्यों, मंत्रियों, प्रधान सामन्तों तथा श्रेष्ठी और गणोंके प्रधानों के साथ कुमार सुगात्रका राज्याभिषेक स्वयं किया था, क्योंकि ऐसात्रैकरनेसे ही उनका
अपना वंश चलता रह सकता था और प्रजाका हित भो हो सकता था। अभिषेक-विधि पूर्ण होते ही वरांगराजने अपने हाथोंसे Aही कुमार सुगात्रको राजका पट्ट बाँधा था ॥ ४३ ।।
१. [ शिक्षयन्त्यात्ष°] । २. [ शिक्षयित्वा] ।
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