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बराङ्ग चरितम्
भिवागलं यान्ति चिरं बनान्तं यथा गजा वारयितुन शक्याः गहार्गलं तद्वदहं विभिद्य व्रजामि मान्धी 'वर एष याचे ॥१६॥ बहिर्य यासुर्भवनात्प्रदीप्ताक्षिपत्यरातिः पुनरेव तत्र।। दुःखानलादेवमभिप्रया'तुमापीपतः पार्थिव शत्रुवन्माम् ॥ १७ ॥ क्षुब्धार्णवाददुर्गतिवीचिजालात्कृच्छेण कुलान्तमुपागतं तम् । नदत्यरातिस्तु यथैव तत्र मा ननदः संसृतिसागरे माम् ॥ १८॥ सुवर्णपात्रे परमान्नमिष्टं बुभुज्यमानस्य विषं ददाति । यथा तथा राज्यविषं ददाति धर्मामतं भमिप मे पिपासोः ॥ १९ ॥
एकोनत्रिंशः सर्गः
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सुअवसर मिलते हो स्वतन्त्रता प्रेमी हाथी अपने बांधनेके खम्भेको तोड़कर जब भागते हैं तब उन्हें रोकनेका किसीको साहस नहीं होता है और वे सघन वनमें चले जाते हैं । इसी विधिको आदर्श मानकर मैं भी गृहस्थीके बन्धनरूपी अर्गलाको तोड़कर दीक्षा लेने जाता हूँ। आप मुझे निषेध न करें, मेरी यही याचना है। १६ ।।
तथोक्त' स्वजन शत्र हैं जब भवन में आग लग जाती हैं तो समझदार पुरुष बाहर भाग जानेका प्रयत्न करता है किन्तु जो शत्रु होता है वह उसे पकड़कर फिर उसी आगमें जला देता है । मैं भी सांसारिक दुखों रूपी अग्निज्वालासे बाहर निकल रहा हूँ। हे महाराज! आप किसी शत्रुके समान मुझे फिर उसी ज्वालामें मत झोंकिये ।। १७ ।।
प्रभञ्जन और ज्वारभाटाके कारण क्षुब्ध, ऊँची-ऊँची लहरोंसे आकुल भीषण समुद्रसे बड़े कष्ट और परिश्रमके बाद किनारेपर लगे व्यक्तिको धक्का मारकर शत्रु ही फिर समुद्र में ढकेल देता है। दुर्गतियों रूपी घातक लहरोंसे व्याप्त संसार-समुद्रमें हे पिताजी ! उसी प्रकार आप मुझे फिर मत गिरा दोजिये ।। १८॥
कोई पुरुष सोनेके सुन्दर, स्वच्छ पात्रोंमें जब स्वादु, शुद्ध मिष्ठान्न खा रहा हो उसी समय उसे प्राणान्तक विष देना जैसा हो सकता है, वैसा ही मेरे साथ होगा, यदि मुझे राज्यलक्ष्मी रूपी विष पीनेके लिए बाध्य किया गया तो, क्योंकि इस समय मेरे भीतर धर्मरूपी अमृतसे ही शान्त होने योग्य पिपासा भभक रही है ।। १९ ॥ १. [ त्वां धीबर ।
२. बहियियासु । २. बहियियासुं]। ३. [ °प्रयात° ] |
३.[ प्रयात ] । ४. [ बोभुज्य ]। ५. [ ददासि ] ।
GETURE
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