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वराङ्ग
पंचविंशः
चरितम्
सर्गः
द्वेषश्च रागश्च विमूढता च दोषाशयास्ते जगति प्ररूढाः । न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानहतस्त्वाप्ततमा वदन्ति ॥ ८८॥ अहंन्त एवाभयदानवक्षा अर्हन्त एवाप्रतिवीर्यसत्वाः । अर्हन्त एवामलसत्त्वरूपा अर्हन्त एवातिशयद्धियुक्ताः ॥९॥ अर्हन्त एवाकृपया विहीना अर्हन्त एवारिभयेरपेताः। अर्हन्त एवाचलचारुसौख्या अहंन्त एवातुलमोक्षभासः ॥९॥ अर्हन्त एव त्रिजगत्प्रपूज्या अर्हन्त एव त्रिजगच्छरण्याः । अर्हन्त एव त्रिजगद्वरेण्या अर्हन्त एवाखिलदोषमुक्ताः॥ ९१॥
मामा -IROHIBITERAL
गये हैं, भूख, प्यास, रोग तथा व्याधि जिनको छु भो नहीं सकती हैं, पसीना, मूत्र, आदि मल जिनकी दिव्य देहको दुषित नहीं करते हैं । वही महापुरुष सत्य आप्त हो सकते हैं। उनके स्वभाव तथा अन्य गुणोंके उपमान वहाँ स्वयं हो सकते हैं, कोई दूसरा नहीं ।। ८७।। व हमारे विश्वमें कोई भी आत्मा ऐसा नहीं है जो राग-द्वेषके रंगसे न रंगा हो, महामूर्खता तथा दोष करनेकी प्रवृत्ति । किस जीवमें नहीं है ? किन्तु संसार भरमें व्याप्त ये सब दोष उन अर्हन्त केवली में ही नहीं होते हैं क्योंकि उन्होंने अपने समस्त पापकर्मोको कालिमाको धो कर फेक दिया है और वे ही परमात्मा हैं ।। ८८ ॥
यही कारण है कि आचार्योंने उन्हें ही सत्य आप्त माना है। श्री एकहजार आठ अर्हन्त केवली प्रभु ही विशुद्ध अहिंसाके प्रचारक होनेके नाते सारे संसारको अभयदान दे सकते हैं। आठों कर्मों के समूल नष्ट हो जानेके कारण अर्हन्त प्रभुकी ही शक्ति तथा सामर्थ्य ऐसी हो गयी है कि उसकी कोई दूसरा समता नहीं कर सकता है। कर्मकालिमा नष्ट हो जानेके कारण अर्हन्तदेवके ही अन्तरंग और रूप निर्मल हो गये हैं। अर्हन्त केवली ही विविध अतिशयों तथा ऋद्धियोंके स्वामी होते हैं । अर्हन्तदेवमें अकृपाकी छाया भी नहीं पायी जा सकती है ।। ८९ ।।
वीतराग अर्हन्तका इस संसारमें न तो कोई शत्रु ही है और न उन्हें किसीसे कोई भय ही है । अर्हन्तदेवका क्षायिक सुख ऐसा है जो कभी नष्ट नहीं होता है और अनन्तकालतक भी उसको चारुता नहीं कमती है। अर्हन्त प्रभुने ही उस मोक्ष महापदको प्राप्त किया है, जिसकी छटाकी तुलना किसी अन्य पदार्थ से हो हो नहीं सकती है ॥ ९ ॥
इन योग्यताओंके कारण वीतराग अर्हन्त ही तीनो लोकके प्राणियोंके परमपूज्य हैं, हितोपदेशी तथा आत्मपुरुषार्थी । अर्हन्त प्रभु ही संसारका सहारा हैं । अहंतदेव ही तीनों लोकोंमें सबसे श्रेष्ठ आत्मा हैं। तथा अहंतकेवली ही क्षुधा, तृषा आदि
१.[ भाजः]।
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