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अष्टाविंशः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
सन्मानमायावनिपैरतीव स्नेहं चकार स्वजनः परश्च । वणिकप्रभुत्वे खलु वर्तमानस्तव प्रसादान्नृपतिस्त्वभूवम् ॥ ७७ ॥ मन्त्रे च युद्धे विषयार्थयोश्च सहायतां ते प्रतिपद्य पूर्वम् । अहं त्विदानों यदि धर्मकृत्ये परित्यजेयं त्वधमोऽस्मि राजन् ॥ ७८॥ एवं निगद्य स्थिरधैर्यवीर्यो विचार्य राजा विगतद्विषश्च । अन्तःपुरं तस्य हि शासनेन आह्वाययां सागरवृद्धिरास ॥ ७९ ॥ आहूयमानास्त्वरया विभूष्य समेखलानपुरमन्द्रनादाः । वराङ्गना भूपतिमभ्युपेत्य तस्थुः पुरस्ताहिकृतोपचाराः ॥ ८० ॥
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रामरामाचाजचमचारचाहनामा
योगमें भी साथ तुम्हारी कृपा तथा स्नेहके कारण ही मुझसे मेरे अपने सम्बन्धी तथा परजन गाढ़ स्नेह और सन्मान करते हैं। तुमसे मिलनेके पहिले मैं सीधा सादा वणिकोंका ही प्रधान था किन्तु तुमसे मिलते ही बड़े-बड़े राजा महाराजा लोग मेरा हृदयसे आदर करने लगे थे। इतना ही नहीं मैं सार्थपतिके पदसे बढ़ता-बढ़ता महान पृथ्वीपति हो गया था ॥ ७७ ।।
तथा यथाशक्ति आपको सम्मति देता था, युद्ध में सहायता करता था। तुम्हारे सुख दुःखमें हाथ बटाता था। कहनेका तात्पर्य यह कि अब तक मैं तुम्हारे प्रत्येक कार्य में साथी था। ऐसा होकर भी यदि इस समय मैं धर्मकार्यमें आपको छोड़कर अलग हो जाता हूँ, तो हे सम्राट ! मैं वास्तवमें सबसे बड़ा अधम हूँ ॥ ७८ ।।
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वनिता बेड़ी सम्राट वरांगका धैर्य अडिग था और वोर्य अकाट्य था । लौकिक शत्रुओंको बे पहिलेसे ही जीत चुके थे तथा आत्मिक शत्रुओंको जीतनेके लिए उद्यत थे । धर्मपिताके वचनोंको सुनकर उन्होंने उनपर कुछ समयतक विचार किया था। इसके उपरान्त प्रारम्भ किये गये कार्यको सफलताकी दिशामें ले जाने के लिए धर्मपिताको संकेत किया था जिसके अनुसार वे पूरेके पूरे अन्तःपुरको सम्राटके पास आनेके लिए कह आये थे ।। ७९ ।।
सम्राटका आह्वान सुनते ही समस्त रानियोंने बड़ी त्वराके साथ अपना शृंगार किया था। कटिप्रदेशपर बंधी मेखलाकी छोटी-छोटी घंटियाँ तथा नूपुरोंसे धीमी-धोमी मधुर ध्वनि हो रही थी। वे सबकी सब कुलीन देवियां क्षणभरमें ही सम्राटके । भवनमें जा पहुंची थीं और विनय तथा उपचार करनेके बाद उनके सामने ही बैठ गयी थीं ।। ८० ।।
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