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अष्टाविंशा
सर्गः
यान्ति क्षयं ते निचयास्तु सर्वे समुच्छितास्तेऽपि च संपतन्ति । वियोगमूलाः खलु संप्रयोगा मृत्योर्मुखं याति च जीवलोकः ॥७३॥ पिता च माता बहुबन्धुवर्गाः सहोदरा मित्रकलत्रपूत्राः । नष्टस्मृति कण्ठगतात्मचेष्टं न मत्यतो मोचयितुं समर्थाः ॥ ७४ ॥ तादग्विधर्भोजनमात्रसंख्यैः किं बान्धवैर्मेऽस्ति हि कार्यमेभिः। तानप्यहं कर्मपथान्तरस्थान् त्रातुं न शक्तोऽप्यथ निश्चितुं त्वाम् ॥ ७५ ॥ निरन्तरं तस्य नृपस्य वाक्यं श्रुत्वाब्रवीत्सागरवद्धिरेवम् । यत्कर्तुमिच्छस्यनवद्यरूप तदात्मशक्त्या क्रियते मयापि ॥ ७६॥
माम
रूपोंमें मनुष्यपर झपटती है। संसारमें कोई भी यह नहीं जानता है कि मृत्यु कब टूटेगी ? ।। ७२ ।।
(पूर्णता ) आयु समाप्त होते ही वे पदार्थ भी नष्ट हो जाते हैं जो हर ओरसे अत्यन्त घने और अभेद्य थे। जो पदार्थ अपनी असीम ऊंचाई से आकाशका चुम्बन करते थे वे सब भी अन्त समय आते ही लुड़क कर ढेर हो जाते हैं संसारके समस्त मधुर मिलन विकट बियोगोंके बीज हैं। सारा जीवलोक बिना अपवादके मृत्युके मुख में समा जाता है । ७३ ॥
अशरणता माता-पिताका स्नेह अकारण और अनासक्त है, समस्त बन्धु-बान्धवोंकी प्रीति अनुपम है, सगे भाइयों, बहिनों और मित्रोंका भी यही हाल है, पत्नोके प्रेमकी सीमा नहीं है और पुत्रकी सेवापरायणता भी श्लाघ्य है। किन्तु जब मनुष्यके प्राण गलेमें अटक जाते हैं, उसको स्मृति नष्ट हो जाती है और चेष्टाए रुक जाती हैं उस समय उसे कोई भी मृत्युके मुखसे मुक्त नहीं कर सकता है ॥ ७४॥
आत्म-शरण इस कोटिके स्नेही, सगे तथा प्रेमी जन आदि मेरे भोजन आदि साधारण कार्योंमें ही साथ दे सकते हैं और मृत्युके समय व्यर्थ हैं तो आप ही कहिये इन लोगोंसे मेरा क्या भला हो सकता है ? तथा जब ये लोग भी अपने-अपने कर्मों रूपी मार्गपर जोरसे ढकेले जायेंगे मैं भी उनको उस समय बचानेमें निरर्थक रहूँगा । आप इसको निश्चित समझिये ॥ ७५ ॥
सेठ सागरवृद्धिने संसारके स्वरूपका नग्नचित्र उपस्थित कर देनेवाले सम्राटके वचन सुने थे तथा देखा था कि उनके उद्गार रुकते ही नहीं थे। तब उन्होंने इतना ही कहा था हे आर्य ? आपके आचार-विचार पवित्र हैं अतएव आप जो कुछ करना चाहते हैं मैं भी अपनी शक्तिके अनुसार उसी कल्याणकर मार्गपर चलना चाहता हूँ ॥ ७६ ॥ १. [ निश्चिनु त्वम् ] ।
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