________________
वराङ्ग चरितम्
प्राणान्तकृद्ब्रह्मवचो दुरन्तं रुद्रस्तु सर्वत्र हि रौद्र एव ।
विष्णुः शठात्मा रतिरोषयुक्तो बुद्धस्तु रौद्रो निरनुग्रहश्च ॥ ८४ ॥ ब्रह्मादयो यद्यनवाप्तकार्या आयुष्यमाप्तुं न हि शक्नुयुश्चेत् । hat भवन्त्यात्मगुणोपपन्नास्तेभ्योऽधिकांस्तान्वद पार्थिवाप्तान् ॥ ८५ ॥ ये दर्शनज्ञान विशुद्धलेश्या जितेन्द्रियाः शान्तमदा दमेशाः । तपोभिरुद्भासितचारुदेहा आप्ता गुणैराप्ततमा भवन्ति ॥ ८६ ॥ निद्राश्र मक्लेशविषादचिन्ताक्षुत्तृड्जराव्याधि भयैविहीनाः अविस्मयाः स्वेदमलैरपेता आप्ता भवन्त्यप्रतिमस्वभावाः ॥ ८७ ॥
1
ईश्वर वाक्य ?
ब्रह्मके मुख से निकले वचनोंके नामपर जो मंत्र आदि जनसाधारणको मान्य हैं, वे प्राणोंकी बलिकी प्रेरणा देते हैं आपाततः उनका फल भी अच्छा हो ही नहीं सकता। ( गजासुरबधक) रुद्रजी अपने प्रत्येक कार्य तथा भाव में निरपवादरूपसे सर्वत्र रौद्र (निर्दय ) ही हैं। विष्णु भी पूरे महात्मा (व्यंग्य) हैं-न वे प्रेम प्रपंचको हो छोड़ सके हैं और न उनके क्रोधसे ही जगतके प्राणियोंको अभयदान प्राप्त हो सका है। महात्मा बुद्धका भी क्या कहना है मांस भोजन आदिकी अनुमति देकर उन्होंने हिंसाको प्रश्रय दिया है तथा करुणा आदिके उपदेशके विरुद्ध आचरण करनेकी अनुमति देकर जगतके प्राणियोंपर कोई विशेष अनुग्रह नहीं किया है ।। ८४ ॥
ब्रह्मा आदि जगतके तथोक्त सृष्टा रक्षक तथा संहारक भी यदि अपने मनके माफिक काम या बढ़ा करके अपनी इच्छितको जीते जी पूर्ण नहीं कर सके तो भी वे असमय में किसी मनुष्य या प्राणोकी आयुको अपना बल प्रयोग करके समाप्त नहीं सकते हैं । किन्तु हम राजाओंरूपी लौकिक आप्त उन सबकी अपेक्षा अपनी शक्ति तथा पुरुषार्थको दूसरोंपर अधिक दिखा सकते हैं, तब हमारा वे लोग क्या भला-बुरा कर सकते हैं ।। ८५ ।।
'सांचो देव'
जिनके आत्मा सम्यक्दर्शन तथा ज्ञानरूपी सूर्यके आलोकसे प्रकाशित हो उठे हैं, निर्दोष उग्र तपस्या के प्रभावसे जिनकी देहसे एक अलौकिक कान्ति विखर उठती है, इन्द्रियोंरूपी घोड़े जिनके संकेतपर चलते हैं, मन तथा इन्द्रियोंके परिपूर्ण दमनकर्ता, ज्ञानादिके आठों प्रकारके मदसे अति दूर, जिनकी अन्तरंग लेश्या ( भाव ) अत्यन्त निर्मल हो चुके हैं ऐसे अनेक गुणोंके भंडार महर्षि या मुनि ही सत्य आप्त हो सकते हैं ।। ८६ ।।
ऐहिक परिश्रम, निद्रा तथा क्लेशको जिन्होंने जीत लिया है, विषाद, चिन्ता तथा आश्चर्य जिनसे हार कर शान्त
१. क निरनुग्रहैश्च । २. म गुणैरात्मतमा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
पंचविंश:
सर्गः
[५०८]
www.jainelibrary.org