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चराङ्ग चरितम्
पल्योपमानां खलु कोटिकोटी दशाहता सागरमेकमाहुः ।
अनेन मानेन मिता मुनीन्द्रद्वपा: समुद्रा द्वितियार्थसंख्याः ॥ २२ ॥ उद्धारपत्यात्प्रतिगृह्य चैकं तद्रोमखण्डं शतशः प्रकल्प्यम् ।
अनेक कोटयन्दमुहूर्तखण्डं पूर्णं च तेषां निचितं च पल्यम् ॥ २३ ॥ पाते तथैवाब्दशते क्रमेण रोमैकमेकं तत उद्धरेच्च । निष्ठां प्रयाते खलु रोमराशावद्वारपल्यं समुदाहरन्ति ॥ २४ ॥ तेषां दशना खलु कोटिकोटी तन्मानमाहुः किल सागरस्य । दिवौकसां नारकपु' स्तिरश्चामिति स्थितिः कर्मभवाभुवां' च ।। २५ ।।
उद्धारपल्य
जैसा कि पहले कह चुके है कि कोटि-कोटि प्रमाण पल्योंको दशका गुणा करनेपर जो समय आता है वह एक सागर कहा जाता है । मुनियोंके मुकुटमणि श्री केवली भगवान्ने सागरों में ही दो तथा आधे अर्थात् ढाई [ द्वीप ] के प्रमाण मध्यलोकके समस्त द्वीपों और समुद्रों की संख्या कही है ॥ २२ ॥
कल्पना कीजिये कि उद्धारपल्य के गर्त में भरे गये रोमके एक खण्डको निकाल कर उसके उतने टुकड़े करें जितने कि कोड़ा कोड़ि वर्षोंके मुहूर्तों में हो सकते हैं। फिर इन सब टुकड़ोंको लेकर पूर्वोक्त प्रमाणके गर्तको खूब ठोक ठोक कर भर देवे और जब पल्य (गर्त ) भार जाये ।। २३ ।।
अद्धापल्य
जैसा कि पहले कह चुके हैं उसी क्रमसे जब सौ वर्ष बीत जांय तो गर्त में से एक रोम खण्ड निकाले । इस गति से एक, एक रोम तब तक निकालता रहे जब तक कि समस्त रोम राशि समाप्त न हो जाय। इस विधिसे पल्यको खाली करमेमें जितना समय लगे उसको 'उद्घापल्य' कहते हैं ।। २४ ।।
दश कोटि कोटिसे गुणित उद्घापल्य के समयकी राशिसे जो गुणिनफल आयेगा वही समयका सागर प्रमाण होगा। सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्पन्न देव, सातों नरकोंके नारकी मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंकी आयुको संख्या इन्हीं सागरों के द्वारा शास्त्रों में बतायी गयी है (पल्य तथा सागरके व्यवहार, उद्धार तथा अद्धाभेद हैं ।। २५ ।।
१. क कर्मभवाभवां ।
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सप्तविंश: सर्गः
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