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अष्टाविंशः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
तादग्विधानां जगदीश्वराणां प्रकाशवंशामितपौरुषाणाम् । न चारित चेन्मृत्युपथा विमुकतो ह्यस्मविधानां च कथैव नास्ति ।। ३७ ॥ निदाघमासोत्थमहादवाग्निर्दहत्यरण्ये तृणपणकाष्ठम् । चराचरं लोकमिदं समस्तं कालाग्निरेवं खलु दंदहीति ॥ ३८ ॥ लोहाय नावं जलधौ भिनत्ति सूत्राय वैडूर्यमणि दृणोति । सुचन्दनं चौषधि भस्मनाऽसौ3 यो मानषत्वं नयतोन्द्रियार्थे ॥ ३९॥ हस्तागतं प्राणबलप्रदं च त्यक्त्वामृतं स्वादुरसोपपन्नम् ।। प्रदाय मौल्यं मतिमन्दभावात्पिबेद विषं हालहलं दुरन्तम् ॥ ४० ॥
इन महापुरुषोंके वशोंकी आज भी ख्याति है। इन लोगोंका पराक्रम तथा पुरुषार्थ असीम था। छोटे-मोटे राष्ट्र नहीं अपितु कितनी ही दृष्टियोंसे ये लोग सारे संसारके ही रक्षक थे। किन्तु जब ऐसे महापुरुषोंको भी मौतकी धारसे छुट्टी न मिली तो मेरे ऐसे क्षुद्र जन्तुकी तो बात ही नहीं उठती है ॥ ३७॥
ग्रीष्म ऋतुके दिनोंमें जो आग जंगल में लगती है वह संयोगवश भीषण दावाग्निका रूप धारण करके घास, पत्ते, लकड़ी आदिकी विपुल राशिको अनायास ही जलाती जातो है। क्या कालरूपो भयंकर अग्नि स्थावर तथा जंगम जीवों, तथा अजीवोंसे परिपूर्ण इस ससाररूपी महा वनको बिना रुके अनादिकालसे नहीं जलाती आ रही है ? ॥ ३८ ॥
जो मनुष्य इस अनुपम मनुष्य पर्यायको इन्द्रियोंकी तृप्ति करने में ही व्यतीत कर देता है वह व्यक्ति अगाध, अपार पारावारमें दो चार कीलोंके लिए अपनो लोहेको नौकाको तोड़ता है। अथवा एक तागा बनाने के लिए वैडूर्यमणिको पोसता है अथवा थोड़ी-सी भस्मके लिए श्रेष्ठ तथा सुगन्धित चन्दनको जलाता है ।। ३९ ।।
दुर्लभ नर पर्याय अथवा यों कह सकते हैं कि किसी व्यक्तिको संयोगवश सुस्वाद रससे परिपूर्ण अमृत मिल गया है जिसे पोकर उसको प्राण शक्ति तथा अन्य क्षमताएं इतनी बढ़ सकती हैं कि मृत्यु उसे छु भो न सके। किन्तु वह व्यक्ति मन्दमति होनेके कारण हाथ
में आये अमृतके पात्रको भूलसे छोड़कर और मूल देकर विषको पीता है जिसका परिणाम कभी अच्छा हो ही नहीं सकता । है ।। ४०॥ ॥ १. ( °पथाद्विमोक्षो)। २. ( दृणाति)। ३.क भस्मनासा, ( भस्मनेऽसौ)।
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