________________
बराङ्ग चरितमू
तामापतन्तीं प्रभया परीतामतिप्रवद्धाग्निशिखामिवोल्काम । समीक्ष्य राजा सह सुन्दरीविरागतां तत्क्षणतो जगाम ॥ २५ ॥ ताराभिराभिः परिवेष्टिता सा यथैव चोल्का खतलात्पपात । प्रियाङ्गनाभिः परिवार्यमाणो राज्यात्प्रयास्यामि तथाहमस्तम् ॥ २६ ॥ चतुविधेनापि महाबलेनचस्वबन्धििमत्रजनैः परीतः। अहं पुरा दुर्दमितेन तेन नीतोऽस्मि दूरं हयसत्तमेन ॥ २७ ॥ एवं पुनर्धर्मपथादपेतो जन्माटवीष प्रविनष्टचेताः। स्वदृष्कृतोपात्तहयाधिरूढः परिभ्रमिष्यामि तथेत्यनैषीत् ॥ २८॥
अष्टाविंशः सर्गः
THEIRTHEATREARRIAL
बंराग्य आकाशसे गिरती हुई उस उल्काकी प्रखर प्रभापर दृष्टि न ठहरती थी। उसे देखकर ऐसा भान होता था कि बेहद । बढ़ी हुई अग्निकी ज्वाला ही आकाशसे गिर रहो है । सम्राट वरांगने अपनो सुकुमार सुन्दर पल्लियोंके साथ ही उसे आकाशसे ।
टूटते देखा था, तो भी उन्हींपर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा था कि उन्हें भी उसी क्षण गाढ़ वैराग्य हो गया था। अकस्मात् हो उनके मखसे निम्न वाक्य निकल पड़े थे ॥ २५ ।।
वैराग्य-भावना . सुकुमार ज्योतियुक्त तारिकाओंसे घिरी हुई यह उल्का जिस प्रकार आकाशसे अकस्मात् गिरकर कहीं लीन हो गयी है, इसी प्रकार अनुपम रूपवती इन प्राण-प्यारो पत्नियोंसे घिरा हुआ मैं भी किसी दिन इस राज्य पदसे च्युत होकर न जाने कहाँ लुप्त हो जाऊंगा ॥ २६ ॥
जब मैं उत्तमपुरका युवराज था उस समय भी मेरी हस्ति, अश्व, रथ तथा पदाति इन चारों प्रकारको सेनामें कोई त्रुटि न थो, मेरे लिए प्राणों तकका मोह न करनेवाले बन्धुबान्धवों तथा मित्रोंको कमी न थी तो भी वह बलवान दुष्ट घोड़ा मुझे बहुत दूर किसी अज्ञात स्थानको ले भागा था और उसे कोई भी न रोक सका था ॥ २७ ॥
किन्तु अनादिकालसे लगे रोगकी वह क्षणिक व्यक्ति ही थी, क्या मैं पूर्व जन्ममें किये गये पाप कर्मोरूपी दुर्दम घोड़ेपर आरूढ़ होकर आज भी, इस क्षण भी जन्म-मरण रूपो महावनोंमें नहीं घूम रहा हूँ? क्या मेरा वास्तविक चित्त ( विवेक ) नष्ट नहीं हो चुका है ? क्या उस भ्रमणके समान आज भी मैं धर्ममार्ग रूपी राजपथसे पुनः भृष्ट नहीं हो गया हूँ॥ २८ ॥ १.क तथैवनेषीत् ।
माREADLIRITRA
-
[५६१]
Jan Education international
७ १
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org