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वराङ्ग चरितम्
योगतः कर्मबध्नाति स्थितिस्तस्य कवायतः । एकान्तनित्यानित्यत्वान्न बन्धस्थितिकारणम् ।। ५९ ॥ तस्मादुक्ता नयाः सर्वे स्वपक्षाभिनिवेशिनः । मिथ्यादृशस्त एवैते तत्वमन्योन्यमिश्रिताः ॥ ६० ॥ मणयः पद्मरागाद्याः पृथक्पृथगथ स्थिताः । रत्नावलीति संज्ञां ते न विदन्ति महर्षिणः ॥ ६१ ॥ यथैव कुशलैरेते यथास्थाने नियोजिताः । रत्नावल्यो हि कथ्यन्ते प्रत्येकाख्यां त्यजन्ति च ।। ६२ ॥ तथैव च नयाः सर्वे यथार्थं विनिवेशिताः । सम्यक्त्वाख्यां प्रपद्यन्ते प्राक्तनीं संत्यजन्ति च ॥ द्रव्याथिक यस्यात्मा कर्मकृत्फलभृत्क्षमः । पर्यायार्थिकयस्यान्यः कर्ता भोक्ता तथापरः ॥
६३ ॥
६४ ॥
मन, वचन तथा कायके योगों (क्रियाओं) के द्वारा ही जीव नूतन कर्मोका बन्ध करता है तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, आदि कषायों की कृपासे नूतन बद्धकर्मोकी स्थिति पड़ती है। किन्तु जहाँ पर केवल योग अथवा कषाएँ नित्य होंगी, तथा केवल अनित्य होंगी वहाँ पर न किसीका बन्ध होगा और न स्थिति ।। ५९ ।।
यही कारण है कि अपने अपने विषय ( एक ही पक्ष ) के सत्य घोषित करके दूसरी अपेक्षाओं ( अनित्यादि ) को मिथ्या घोषित करनेवाले परस्पर निरपेक्ष नयोंको मिथ्या नय कहा है। किन्तु जब ये हो नय परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा करने लगते हैं तो इनके द्वारा प्राप्त ज्ञान सत्य ज्ञान हो जाता है ॥ ६० ॥
सापेक्षत्रय
पद्मराग, आदि प्रत्येक मणि ही बहुमूल्य होता है । किन्तु यदि ये सब महामणि अलग-अलग एक यहाँ, एक वहाँ पड़े रहें तो वे महामूल्य होकर भी रत्नावली (हार) इस नाम तक को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, यही अवस्था निरपेक्ष नयोंकी है ॥ ६१ ॥
जो पुरुष हार बनानेकी कला में निपुण हैं वे इन्हीं बिखरे हुए मणियोंको सक्रम एकत्र करके जब उचित स्थान पर पिरो देते हैं तो उनकी कान्ति अनेक गुनी हो जाती है और उसी समय वे रत्नहार इस नामको भी पा जाते है । उस समय उनके अपने-अपने पृथक् नाम लुप्त हो जाते हैं । यही अवस्था नयविज्ञान की है ।। ६२ ।।
नैगम, आदि सब नय जब अपने आंशिक ज्ञानको पूर्ण पदार्थ के ज्ञानमें यथास्थान समर्पित कर देते हैं। दिया गया ज्ञान पूर्ण होता है फलत वे सब ही नय सत्य हो जाते हैं और अपने पहिले नाम नैगमादि नयको नामको प्राप्त करते हैं ॥ ६३ ॥
द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे जो आत्मा अपने एक जीवन में अनेक शुभ-अशुभ कार्य करता है, वही आत्मा अपने इसी जन्म अथवा दूसरे जन्ममें उनके फलोंको भोगता है। इस ही आत्माको जब हम पर्यायार्थिक नयकी कसौटी पर कसेंगे तो कर्म करनेवाला आत्मा कोई होगा और उसका फल भोगनेवाली दूसरा पर्याय हो जायगो ।। ६४ ।।
१. क यस्यायम् [ पर्यायाथिनयस्यान्यः ] !
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तब उनके द्वारा छोड़कर प्रमाण
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षड्विंशः
सर्ग:
[ ५२२]
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