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वराङ्ग
चरितम्
५५ ॥
न हि द्रव्याथिको नाम नयः कश्चिववस्थितः । पर्यायार्थिको वापि किंतु भावाव्यवस्थितिः ॥ ५३ ॥ उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति नियमात्पर्यायवाचिनः । न जायन्ते न नश्यन्ति भावा द्रव्यार्थिकस्य च ॥ ५४ ॥ ऋते द्रव्यान्न पर्याया द्रव्यं वा पर्ययेविना । स्थित्युत्पत्तिनिरोधोऽयं द्रव्यलक्षणमुच्यते ॥ प्रोक्ता स्थित्यादयस्तेऽपि तयोः प्रत्येकलक्षणम् । न भवन्ति यतस्तस्मान्न तस्वं तौ नयौ स्मृतौ ॥ ५६ ॥ न संभवति संसारे द्रव्याथिकनयस्य यत् । न पयोऽथिकस्यापि यदुद्ध्रौव्यच्छेदवादिनौ ॥ ५७ ॥ सुखदुःखोपभोगस्तु नित्यस्यापरिणामिनः । घटते नाय नित्यस्य सर्वथोच्छेददर्शनात् ॥ ५८ ॥
निक्षेप कहते हैं । इन चारों निक्षेपोंमेंसे प्रारम्भके तोन अर्थात् नाम, स्थापना तथा द्रव्यका व्यवहार उस समय होता है जब हम द्रव्यार्थिक नसे पदार्थोंको जानते हैं। शेष चौथा भाव-निक्षेप पर्यायार्थिक नयसे ज्ञान करते समय ही उपयोगी होता है ॥ ५२ ॥
किन्तु इसका यह तात्पर्यं नहीं कि द्रव्यार्थिक नय नामके किसी नयकी पदार्थं जानने की प्रक्रिया, आदि साधन पूर्णरूपसे निश्चित हैं। पर्यायार्थिक नयकी भी यही अवस्था है जो कि द्रव्यार्थिक नयकी है। इस सबका इतना ही सार है कि प्रति क्षण परिवर्तित होते हुए भाव ही इन नयोंके विषय हैं ॥ ५३ ॥
किन्तु द्रव्यार्थिक
पर्यायार्थिक नयके ज्ञेय-विषय क्षण-क्षण पर उत्पन्न होते हैं तथा उसी क्रमसे नष्ट भी होते रहते हैं । न विषयोंकी अवस्था इसके सर्वथा विपरीत है, क्योंकि वे न तो उत्पन्न ही होते हैं ओर न नष्ट नहीं होते हैं ॥ ५४ ॥
यह भी निश्चित है कि यदि द्रव्य न हो तो पर्यायों का आविर्भाव सर्वथा असंभव है । इसी क्रमसे देखिये यदि पर्यायें न हों तो द्रव्यका सद्भाव भी असंभव हो जायगा, क्योंकि द्रव्यकी परिभाषा हो स्थिति, उत्पत्ति तथा विनाशका समुदाय है ।। ५५ ।।
उत्पादत्रय
स्थिति ( धौव्य ) उत्पत्ति ( उत्पाद ) तथा निरोध ( व्यय ) इन तीनोंके विशद लक्षणों को भी शास्त्रों में अलग-अलग करके बताया है । किन्तु इतनेसे ही अभीष्ट पदार्थ की सिद्धि नहीं होती है, यही कारण है कि लोक व्यवहारमें साधक होते हुए भी ये दोनों नय प्रमाण नहीं हैं ॥ ५६ ॥
संसार के पदार्थों में न तो द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे व्यवहार चल सकता है, और न पदार्थोंको पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ही कहा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों द्रव्य के ध्रौव्य भावके प्रतिकूल पड़ते हैं ।। ५७ ।।
यदि द्रव्यार्थिक के अनुसार नित्य ही माना जाय तो उसमें किसी भी प्रकारके परिवर्तन के लिए स्थान नहीं रह जायेगा फलतः सुख, दुःख, उपभोग जो कि परिणाम ( बदलने) के ही प्रतिफल हैं वे कैसे बनेंगे। यदि सर्वथा अनित्य ही माना जाय तो भी ये सब भाव न बन सकेंगे क्योंकि आधार भूत पदार्थ सर्वथा हो नष्ट ( असत् ) हो जायगा ।। ५८ ।।
१. पर्यायार्थिकस्यापि ] ।
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षड्विंशः
सर्गः
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