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स्याद्वादः खलु पूर्वस्मिन्परस्मिन्नुभयोरपि। उभयोः पादयोर्न स्यादिति केचित्प्रचक्षते ॥ ८१ ॥ अनेकान्तोऽपि चैकान्तः स्यादित्येवं वदेत्परः। अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति जैनो श्रुतिः स्मृता ॥ ८२॥ तस्यानेकान्तवादस्य लिङ्गं स्याच्छब्द उच्यते। तदुक्तार्थे विनाभावे लोकयात्रा न सिध्यति ॥ ८३ ॥ नयानामपि सामग्री प्रकृत्यादीनां च संहतिः। सम्यक्त्वमिति विज्ञेयं नान्यच्छेयोऽस्त्यतः परम् ॥ ८४ ॥ प्रमाणनयनिक्षेपक्रमोपहितं पुनः। एकान्तकात्मकं वस्तु भावाभावोपहितम् ॥५॥ द्रव्याथिकव्यवस्थायामेकं स्यात्पर्ययार्थिनः। अनेकमिति निर्दिष्टं तदेव जिनशासने ॥८६॥
बराज चरितम्
षविंशः
सर्गः
समान भी नहीं है, और मनुष्य भी जीव है तब वह मिट्टी घड़े आदिके समान नहीं है। इन सब विकल्पोंके साथ स्यात् पद जोड़नेसत्य प्राप्त ज्ञान होता है ।। ८० ॥
इसपर कोई प्रतिवादी शंका करता है कि ऐसा होना असंभव ही है कि पहिला विकल्प भी स्याद्वाद हो दूसरा भी स्याद्वादमय हो, दोनों भी स्याद्वाद दृष्टिके अनुकूल हों तथा दोनों विकल्प रहनेपर भी स्याद्वाद दृष्टिकी प्रतिकूलता न होती हो ॥ ८१॥
___ यदि इन बातोंको स्वीकार कर लिया जाय तो इसका मतलब यही होगा कि आपका अनेकान्त भी एक प्रकारका शुद्ध । एकान्त है ? उसकी इस शंकाका समाधान करनेके लिए ही ( परमपूज्य समन्तभद्र आदि आचार्यों) ने कहा है कि अनेकान्तमें भी अनेकान्त घटता है ।। ८२ ॥
इस अनेकान्तका प्रधान लिग ( द्योतक चिह्न ) स्यात् शब्द है क्योंकि वह, यह सूचित कर देता है कि यही ज्ञान सब कुछ नहीं है। यदि स्यात् शब्दके इस अर्थकी उपेक्षा करके पदार्थोंके स्वरूपको माना जायगा तो अनेक विरोध खड़े होकर, लोक व्यवहारका चलना ही असंभव कर देंगे ।। ८३ ।।
नैगम, संग्रह, आदि सातों नयोंके द्वारा प्राप्त किये गये परस्पर सापेक्ष; (निरपेक्ष नहीं ) ज्ञान तथा प्रकृति, स्थिति, आदिके मिले हुये कार्य ( ज्ञान ) को ही शुद्ध सम्यक्त्व ( सत्य श्रद्धा ) कहा है। इस प्रकारके सत्य श्रद्धानके विना कोइ दुसरा मनुष्यका उपाय अधिक कल्याण ( यथार्थ ज्ञान ) नहीं कर सकता है ।। ८४ ॥
जब ज्ञाता संसारके किसी भी पदार्थको प्रत्यक्ष, आदि प्रमाण, नैगम, आदि नय तथा नाम, स्थापना, आदि निक्षेपोंकी अपेक्षासे क्रमपूर्वक देखना प्रारम्भ करता है, तो एक ही वस्तु एक विशेषतामय तथा अनेक विशेषताओंसे पूर्ण दिखती है। जो वस्तु स्वपर्याय-भाव रूपमें सामने ( सत् ) आती है वही दूसरेको अपेक्षासे अभावमय ( असत् ) प्रतीत होती है ।। ८५ ।।
श्री अर्हन्त केवलीके द्वारा कथित जैन आगममें द्रव्याथिक नयकी प्रधानता होनेपर सब पदार्थ द्रव्यरूपमें एक ( द्रव्यत्वमय ही हैं किन्तु जब उन्हें पर्यायाथिक नयकी दृष्टिसे जाँचते हैं तो वे पदार्थ पर्याय (मिट्टोके घड़े ( थाली ) भेदसे अनेक हो जाते
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