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वराङ्ग चरितम्
११ ॥ १२ ॥
१३ ॥
अनादिनिधने काले निर्धास्यन्ति त्रिभिर्युताः । भव्यास्ते च समाख्याता हेमधातूपमाः स्मृताः ॥ सर्वकर्मविनिर्मुक्ताः सर्वभावार्थदर्शिनः । सर्वज्ञाः सर्वलोकार्याः सर्वलोकाग्रधिष्ठिताः ॥ निर्बंन्धा निःप्रतीकाराः समसौख्यपरायणाः । ये च सर्वोपमा' नीतास्ते सिद्धाः संप्रकीर्तिताः ॥ षट्प्रकारविभक्तं तत्पुद्गलद्रव्य मिष्यते । तस्य नाम विभक्तं तत्प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम् ॥ स्थूलस्थूलं तथा स्थूलं स्थूलसूक्ष्मं यथाक्रमम् । सूक्ष्मस्थूलं च सूक्ष्मं च सूक्ष्मसूक्ष्मेण षड्विदुः ।। १५ ।। विवेचन किया था उनपर हो जो श्रद्धा करते हैं, उन्हें मानकर उसके अनुकूल आचरण करते हैं वे श्रद्धालु पुरुष दिनों-दिन अपनी आन्तरिक शुद्धिको बढ़ाते हैं ।। १० ।।
१४ ॥
भव्यजीव
उनका संसार भ्रमण तो अनादि ही होता है किन्तु शुभ अवसर आते ही वे सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र मय रत्नत्रयको धारण करते हैं। तब उनका आगामी संसार सान्त ( कुछ भव बाद समाप्त ) हो जाता है । ऐसे जीवों को भव्य कहा है । ये साधु पुरुष उस मलीन मूल धातुके समान हैं, जो शुद्धिके उपाय जुटते हो शुद्ध स्वर्ण हो जाती है ।। ११ ।।
मुक्तजीव
ज्ञानावरणी, मोहनीय आदि आठों कर्मोंके बन्धनोंसे मुक्त, तीनों लोकों तथा कालोंके समस्त पदार्थं तथा सूक्ष्म भावोंके विशद रूपसे ज्ञाता, अतएव वास्तव में सर्वज्ञ, हितोपदेशक होनेके कारण समस्त लोकोंके परमपूज्य, षड़द्रव्यमय लोकके ऊपर ( उसके बाहर ) आत्मस्वरूप में विराजमान हैं ॥ १२ ॥
संसारके समस्त बन्धनोंसे परे, जिनको न तो किसीका प्रतीकार करना है तथा न कोई उनका प्रतीकार ही कर सकता है, सांसारिक सुखोंसे सर्वथा भिन्न क्षायिक आध्यात्मिक सुखसे परिपूर्ण तथा इस जगतके किसी भी पदार्थको उपमा देकर जिनके स्वरूपको नहीं समझाया जा सकता है, उन्हीं लोकोत्तर आत्माओंको, जो लोक के ऊपर निष्ठित हैं, उसे मुक्त जीव कहते हैं ॥ १३ ॥
अजीव
द्वितीय द्रव्य पुद्गलको भी स्थूलरूप से छह भागों में विभक्त किया है। अब उसोका वर्णन करते हैं । पहिले उसके छहों भेदों को गिनाते हैं इसके उपरान्त क्रमशः छहों प्रकारके पुद्गलोंके स्वरूपका कथन करेंगे ।। १४ ।।
प्रथम भेदका नाम स्थूलस्थूल ( अत्यन्त स्थूल ), स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, फिर इसी क्रमसे सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म तथा सूक्ष्म-सूक्ष्म ( अत्यन्त सूक्ष्म ) ये छह भेद पुद्गल द्रव्यके आकार-प्रकार आदिको सामने रखते हुए किये गये हैं ।। १५ ।।
१. [ सर्वोपमातीताः ] ।
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षड्विंश:
सर्गः
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