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गवामसक्क्षीरघृतैश्च देवास्तृप्ताः परास्तेऽपि च तर्पयन्ति । देवाश्रयान्मध्यतमास्तु गावः पूताश्च पुण्या इति धोषणैषा ॥६॥ गोदानतस्ते च सुरर्षिसंघा दत्ता द्विजेभ्यः सकला भवन्ति । पितृभ्य एवं बहुसारमौल्यं दत्तं भवत्यत्र हि गोप्रदानात् ॥ ६१ ॥ आरोहदाहस्य धनप्रतोदं प्रदोहवाहो दमनक्रियाभिः। प्रपीडिताः क्लेशगणान्भजन्ते देवर्षिसंघातसुखानि तेषाम् ॥ ६२ ।। कुदृष्टिदृष्टान्तवचोऽभिधानादेवाश्च दासा इव वणितास्ते। तेषां विरोधाचरितादवश्यं जगत्प्रणाशं स्वयमभ्युपैति ॥ ६३ ॥
चतुर्विशः सर्गः
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गायका देवत्व 'गायोंका दूध, घी, रक्त, मज्जा आदि का उपहार करनेसे स्वर्गवासी देवता अत्यन्त तृप्त होते हैं। जब वे स्वयं संतुष्ट रहते हैं तो अपने भक्तोंकी मनोकामनाओंको भी बिना विलम्ब पूर्ण करते हैं। गायोंके अंग अंगमें देवताओंका निवास है। यही कारण है कि संसारमें कोई भी वस्तु गायकी अपेक्षा अधिक पवित्र नहीं है। वे स्वयं पवित्र हैं और दूसरोंको भी पवित्र करती हैं। इत्यादि घोषणाएँ संसारमें प्रचलित हैं ।। ६० ।।
ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक गायदान देनेसे समस्त देवता तथा ऋषि लोग सतुष्ट हो जाते हैं, तथा उन्हें विशेष फलकी प्राप्ति होती है। यदि इस लोकमें ही किसोके उत्तराधिकारी गोदान देते हैं तो उनके स्वर्गीय पितृ पुरुष केवल शान्ति और सफलताको ही नहीं पाते हैं । क्योंकि उनके निमित्तसे दिया गया गोदान साधारण गोदान न रहकर उनके लिए स्वर्गलोकके सुखोंके मुकुटका समर्पण ही हो जाता है ।। ६१ ।।
किन्तु इन विशेषताओंकी खान गाय अथवा बैलपर सवारी की जाती है, भार लादा जाता है, वेगसे चलने, वशमें रखने आदिके लिए लगातार कोंचा छेदा जाता है, बलप्रयोग करके दुही जाती है, हल आदिमें जुतते हैं, थोड़ेसे अपराधके लिए भयंकर दमन किया जाता है । अनेक प्रकारके कष्ट उन्हें सहना पड़ते हैं, जोवनभर पोड़नसे पाला नहीं छूटता है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो.यह है कि उनकी इस विपत्तिकी देवता तथा ऋषि बिना किसी असुविधाके उपेक्षा ही करते हैं ।। ६२॥
मिथ्यादृष्टी उपदेशकोंने कुछ दृष्टान्तोंको देकर देवोंके स्वरूपको समझाया है, उन सबको सूक्ष्मदृष्टिसे देखनेपर ऐसा लगता है कि देवोको बहुत कुछ दासों ऐसी ही अवस्था है। तो भी किसी रूपमें उन देवताओंका विरोध करनेसे ही सचराचर जगत किसी बाहिरी कारण-कलापके बिना स्वयमेव विनष्ट हो जाता है ।। ६३ ।।
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