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चराङ्ग चरितम्
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यथा नटो रङ्गमुपेत्य चित्रं नृत्तानुरूपानुपयाति वेषान् । जीवस्तथा संसृतिरङ्गमध्ये' कर्मानुरूपानुपयाति भावान् ॥ ४० ॥ ब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति न क्षत्रियो नापि च वैश्यशूद्रे । ततस्तु कर्मानुवशा हितात्मा संसारचक्रे परिबंभ्रमीति ॥ ४१ ॥ अपातकत्वाच्च शरीरदाहे देहं न हि ब्रह्म वदन्ति तज्ज्ञाः । ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्टः शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति ॥ ४२ ॥ विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥ ४३ ॥
हैं । अन्य कितने ही ऐसे होते हैं, जो किसी प्रकार बाल्य अवस्थाको पार करते-करते ही नष्ट हो जाते हैं। असंख्यात ब्राह्मण बालकोंकी सब इन्द्रियाँ तक पूरी नहीं होती हैं। और शेष लगभग सब ही निर्धनताको अपनी जीवनसंगिनी बनाते हैं । तब यह सोचिये कि उनमें और दूसरे लोगोंमें क्या भेद होता है ? ।। ३९ ।।
ब्राह्मणत्व जातिको निस्सारता
अभिनय करने में मस्त नट जब रंगस्थलीपर आता है तो वह उन उन विचित्र हाव-भावोंको करता है तथा वेशोंको धारण करता है जो कि नाटककी कथावस्तुके अनुकूल होते हैं। यह विस्तृत संसार भो विशाल रंगमंच है, इसपर संसारी जीवरूपी आता है तथा उन सब शरीरों धारण करता है तथा उन्हीं शुभ अशुभ कर्मोंको करता है जो कि पूर्व अर्जित कर्मोंके परिपाक होनेपर उसे प्राप्त होते हैं ॥ ४० ॥
इस संसार में ब्राह्मण जाति नामकी कोई निश्चित रंग-रूप युक्त वस्तु नहीं है, क्षत्रियों को भी कर्म ( विधि ) विशेष चिह्न युक्त करके नहीं भेजते हैं तथा वैश्यों और शूद्रोंका भी यही हाल है। सत्य तो यह है कि आत्म-ज्ञानहीन यह पामर आत्मा कर्मों की पाशमें पड़कर, उनके संकेत के ऊपर ही संसार चक्रमें नाचता फिरता है ।। ४१ ।।
आत्मा तथा शरीर के विशेष रहस्यके पण्डितोंका कथन है कि मृत शरीरको भस्म कर देनेमें कोई पातक नहीं है, उसे वे शरीर न कहकर ब्रह्म ही कहते हैं। यह कौन नहीं समझता है कि तब ज्ञान साक्षात् ब्रह्म (शरीर) से किसी भी अवस्थामें बड़ा नहीं हो सकता है। किन्तु क्या कारण है कि जिस शूद्रको वर्णव्यवस्था के प्रतिष्ठापकोंने सबसे नीच कहा है वह भी वेदका अध्ययन करता है ।। ४२ ।।
कर्मणा वर्ण
कोई व्यक्ति ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होनेपर भी यदि ब्राह्मणत्व के लिए परम आवश्यक विद्या, सदाचार तथा अन्य आदर्श
१. म संवृति ।
२. [ कर्मानुवशाद्धतात्मा ] ।
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पंचविश: सर्गः
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