________________
पंचविंशा
सर्गः
द्विजातयो मुख्यतमा नलोके तद्वाक्यतो लोकगतिः स्थितिश्च । देवाश्च तेषां हवनक्रियाभिस्तृप्ति प्रयान्तीति च लोकवादः ॥ २८ ॥ पत्राणि पुष्पाणि फलानि गन्धानवस्त्राणि नानाविधभोजनानि । संगृह्य सम्यग्बहुभिः समेताः स्वयं द्विजा राजगृहं प्रयान्ति ॥ २९ ॥ प्रवेष्टुकामाः क्षितिपस्य वेश्म द्वास्थैनिरुद्धाः क्षणमीक्षमाणाः । तिष्ठन्त्यभद्राः करुणं ब्रुवाणा नालं किमेतत्परिभूतिमूलम् ॥ ३० ॥ यदीश्वरं प्रीतिमखं स्वपश्यंस्ते मन्यते भूतलराज्यलाभम् ।। पराइमखश्चेन्नपतिस्तथैव राज्याद्विनष्टा इव ते भवन्ति ॥३१॥
ब्राह्मत्व विचार संसारमें एक किंवदन्ती बहुत समयसे चली आ रही है कि मनुष्योंके सब वर्णों तथा वर्गोमें द्विज ( ब्राह्मण ) ही सबसे बढ़कर हैं । उनके उपदेश तथा व्यवस्थाके आधारपर ही सांसारिक व्यवहार चलते हैं तथा कर्त्तव्य आदिकी मर्यादाएँ निश्चित होती हैं । इतना ही नहीं जब ब्राह्मण लोग हवन आदि कार्य करते हैं तो देवता लोग उनपर संतुष्ट हो जाते हैं ॥ २८ ॥
इसी विश्वासके सहारे वे ब्राह्मण लोग अनेक धर्मभीरु पुरुषोंसे पत्र, पुष्प, फल सुगन्धि पदार्थ आदि ही नहीं लेते हैं अपितु बहुत प्रकारके वस्त्र तथा नाना विधिके व्यञ्जन ग्रहण करके दाताओंको पुण्यसंचय करनेका शुभ अवसर देते हैं ॥ २९ ॥
किन्तु जब ये पुण्यदाता राजमहल में प्रवेश करने जाते हैं, तो द्वारपाल इन्हें द्वारके बाहर ही रोक देते हैं। इन्हें भी पृथ्वीपतिके राजसदनमें जानेकी आवश्यकता रहती है, अतएव रोके जाने पर घंटों प्रतीक्षा करते खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं आत्मगौरवकी भावनासे हीन द्वारपाल ये द्विज, दीन होकर वचन कहते हैं। क्या यह सब पराभव उनकी शक्तिहीनताको स्पष्ट करनेके लिए काफी नहीं है ? ॥ ३० ॥
देवताओंके प्रिय ( मूर्ख ) ये ब्राह्मण लोग राजसदनमें प्रवेश पाकर यदि पृथ्वीपतिको प्रसन्न रूपमें देख पाते हैं, तोHERv] इनकी प्रसन्नता इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें ऐसा अनुभव होता है, मानों उन्होंने समस्त पृथ्वीका राज्य ही पा लिया है। राज
महलमें यदि धुस ही न सके अथवा भीतर जाकर ही यदि राजाको अपने प्रति उदासीन पाते हैं तब तो उन्हें ऐसा ही लगता है है मानो वे किसी विशाल साम्राज्यके सिंहासनपरसे घसीटकर भूमि पर फेंक दिये गये हैं ॥ ३१ ॥
For Private & Personal Use Only
-मनमाडम्यानमारमा
www.jainelibrary.org
Jain Education international