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बराज
पंचविंशः
परितम्
पावप्रचारेस्तनुवर्णकेशैः सुखेन दुःखेन च शोणितेन । स्वग्मांसमेवोऽस्थिरसैः समामाश्चतुःप्रभेदाश्च कथं भवन्ति ॥८॥ कृते युगे नास्ति च वर्णभेवस्त्रेताप्रवृत्तावथवाथ भृत्यम् । आभ्यां युगाभ्यां च निकृष्टभावाद्यवापरं वर्णकुलाकुलं तत् ॥९॥ इति प्रवादैरतिलोभमोहैढेषैः पुनर्वर्णविपर्ययैश्च । विश्रम्भघातैः स्थितिसत्यभेदैर्यक्तः कलिस्तत्र भविष्यतीति ॥१०॥ क्रियाविशेषाव्यवहारमात्राद्वयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥ ११ ॥
सर्गः
चारों वर्गों के मनुष्योंकी त्वचा, मांस, रक्त, मज्जा, हड्डो तथा शुक्र आदि समस्त रस एक ही प्रकारके होते हैं। उनके चलने, उठने, बैठने, शरीरके साधारण निर्माण, रंगरूप, केश आदि अंगों तथा चेष्टाओंमें भी कोई भेद नहीं होता है। सुख, शोक, चिन्ता, दुख, प्रसन्नता, शम, आदि भावोंका विचार करने पर तो मनुष्यमात्रमें कोई भी भेद दृष्टिगोचर होता ही नहीं है ।। ८॥
जहाँतक पौराणिक ख्यातोंका सम्बन्ध है वे स्पष्ट कहते हैं कि कृतयुगमें किसी भी प्रकारका वर्ण-विभाजन न हुआ था। सत्युगके समाप्त होनेपर त्रेताका आरम्भ हुआ तब हो कुछ स्वार्थान्ध पुरुषोंने सेवा करानेके लिए एक भृत्यवर्गकी नींव डाली थी। सत्युग और त्रेताको अपेक्षा द्वापरयुगमें मनुष्यको चिन्ता तथा आचरण अधिक दूषित हो गये थे अतएव इस युगमें वर्णों तथा उनके भी उपभेदोंका बाजार गर्म हो गया था ॥९॥
इनके बाद कलियुग ऐसा होगा जिसमें उक्त प्रकारके निराधार प्रवाद फैलाये जायेंगे। उस चतुर्थ युग में मनुष्योंका । सामान्यरूपसे मोह तथा विशेष कर द्वेष और लोभ बढ़ जायगे। चारों वर्णके लोग अपनी मर्यादाका लंघन करेंगे फलतः पूरी व्यवस्था उलट जायगी । आपसमें पुरुष एक दूसरेके साथ विश्वासघात करेंगे तथा किसी विषयपर दृढ़ आस्था न करेंगे। आचारविचारकी मर्यादा तथा सत्य आदिका लोप करेंगे ॥ १०॥
जो शान्त परिणाम उदाराश्य पूरुष हैं उनके मतसे, मनुष्यको परमप्रिय ( पठन, रक्षणादि ) कर्म अथवा व्यवसाय, उसका आचरण तथा व्यवहार नियत हैं दया, क्षमा एवं आदि गुणोंका पालन तथा, खेती, शिल्प, अभिरक्षा, आदि आजीविकाके में उपायोंमें भिन्नता होनेके कारण ही चारों वर्णोका विभाजन हुआ है। इन कारणोंके अतिरिक्त दूसरे और कोई कारण नहीं हैं। जिनके आधारपर वर्णव्यवस्थाका महल खड़ा किया जा सके ॥ ११ ॥
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