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पञ्चविंशः सर्गः अथावनीन्द्रः स महासभायां प्रकाशयन्धर्मकथापुराणम् । मिथ्यामहामोहमलीमसानां चित्तप्रसादार्थमिदं जगाद ॥१॥ अष्टक' एवात्र यदि प्रजानां कथं पुनर्जातिचतुष्प्रभेवः। प्रमाणदृष्टान्तनयप्रवादैः परीक्ष्यमाणो विघटामुपैति ॥२॥ चत्वार एकस्य पितुः सुताश्चेत्तेषां सुतानां खलु जातिरेका । एवं प्रजानां च पितक एव पिकभावाच्च न जातिभेदः ॥३॥
पंचविंशः सर्यः
पञ्चविंश सर्ग
वर्ण व्यवस्था आनर्तपुरकी आदर्श राजसभामें विराजमान विशाल पृथ्वीके पालक सम्राट वरांग सत्यधर्म, उसके पालक, शलाका (आदर्श ) पुरुषों को जीवन गाथा तथा अन्य पुराणोंके रहस्य तथा आदर्श अपने मंत्री, आदि सब हो अधिकारियों तथा जनताके हृदयमें बैठा देना चाहते थे क्योंकि ऐसा किये बिना उन सबके चित्तको वह कालिमा नहीं धुल सकती थी जो कि विशेष रूपसे । मिथ्यात्वके कारण तथा साधारणतया कर्मोकी कृपासे उनके भीतर घर कर चुकी थी। इस उद्देश्यको सफल करनेके लिए ही उन्होंने फिर अपने व्याख्यानको प्रारम्भ किया था ॥१॥
'समस्त संसारकी प्रजामें यदि अपनी अनेक साधारण योग्यताओंके कारण ऐक्य हो है, तो यही प्रश्न उठता है कि मनुष्य-वर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार ( वर्गों) जातियोंमें किस आधारपर विभक्त किया गया है। मनुष्यके इन चार भेदोंको जब हम प्रमाण, नय तथा इनको विशद करके समझाने में समर्थ दृष्टान्तोंको विस्तृत तथा सूक्ष्म कसौटीपर ( युक्तिशास्त्र ) कसते हैं तो यह जाति व्यवस्था बिल्कुल उलझ जाती है ॥२॥
यों समझिये, एक पिताके चार पुत्र पैदा हुए, उन चारोंको अवस्था, रंगरूप आदि सब ही बातोंमें तारतम्य होने पर भो इतना निश्चित है कि उनकी जाति एक ही होगी । पूर्ण विश्वके मनुष्योंका उत्पादक वैदिकों ब्रह्मा ( 'मनुष्य जाति'-नामकर्म) एक ही है, और जब कि मूल उत्पादक एक ही है तो कोई कारण नहीं कि उनकी जातियां अलग-अलग हों ।। ३॥ १. [ अस्त्यैक ] ।
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