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बराज
घण्टाप्रदानान्मधुरः स्वरः स्यावदध्वजैविविचित्रैरभिवारिताज्ञः । सर्वैः प्रवन्धो जिनवन्दनेन सर्वसद्धिसूखैकभागी॥२॥ इत्येवमुक्त्वा तदनुग्रहार्थ पूजाफलं दानफलेन सार्धम् । ज्ञेयार्णवस्यान्तमितो महात्मा धर्मोपदेशाद्विरराम साधुः ॥८३ ।। ततस्तु राज्ञाधिकतः प्रगल्भोर विद्यासरित्तोयनिधिः प्रशान्तः। प्रमादहीनो गुणशीलमालः स्तुत्यर्थवादान्वितमित्थमाख्यत् ॥ ८४ ॥ त्वं नन्द वर्धस्व धनैश्च धर्मः संपन्नसस्या धरणी तवास्तु ।। वक्षस्थले ते रमतां च लक्ष्मीरहत्प्रसादान्नप जीव दीर्घम् ॥ ८५॥
त्रयोविंशः सर्गः
चरितम्
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विद्याधर होते हैं तथा छत्र समर्पित करनेसे उत्पन्न, पुण्यके उदय होनेपर पुजारीके राज्यका विपुल विस्तार होता है ।। ८१ ।।
घंटा समर्पित करनेका परिपाक यही होता है कि श्रावकको सुस्वर प्राप्त होता है ! रंग-बिरंगी ध्वजाएं समर्पित करनेवाले श्रावकोंका शासन अलंध्य होता है तथा जो नियमसे जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करते हैं वे सबके द्वारा पूजे ही नहीं जाते हैं; अपितु । A उन्हें सब ऋतुओं तथा ऋद्धियोंके फलोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती है ।। ८२ ।।
उक्त क्रमसे उदार आशय ज्ञायक ऋषिराजने सम्राट तथा समस्त दर्शकोंका कल्याण करनेकी इच्छासे प्रेरित होकर दानके फलके साथ-साथ ही पूजाके परिणामको समझाया था। अन्त में यह कहकर कि श्रावकोंके द्वारा ज्ञेय तत्त्वोंका वर्णन एक ऐसा समुद्र है जिसका कभी अन्त ही नहीं हो सकता है अतएव उन्होंने अपना धर्मोपदेश समाप्त कर दिया था । ८३ ॥
गृहस्थाचार्य तथा याजक राजा मुनि महाराजका उपदेश समाप्त होते ही सम्राटके द्वारा नियुक्त किये गये अतएव साहसी तथा अनुभवी गृहस्थाचार्यने । सत्य बातोंसे परिपूर्ण वचनों द्वारा राजाकी प्रशंसा की थी। विविध विद्याओंरूपो नदियोंके लिए वे धर्माधिकारी उद्वेल समुद्रके
समान थे, स्वभावसे बड़े शान्त थे, गुण और शील ही उनकी माला थे तथा अपने कर्तव्यको पूरा करनेमें वह कभी प्रमाद न 1 करते थे ॥ ८४ ॥
'हे सम्राट ! आप सदा मुदित रहें, सदा आपकी वृद्धि हो, आपको धर्मवृद्धि विशेषरूपसे हो, आपके राज्यकी पृथ्वीके । कण-कणसे विपुल अन्न उत्पन्न हो, आपका विशाल वक्षस्थल लक्ष्मीका निवासस्थान हो, अर्हन्त प्रभुके चरणोंके अनुग्रहसे इतना
ही नहीं अपितु आप चिरंजीवि हों ।। ८५॥
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१.[अभिधारिताज्ञाः]।
२..म.प्रगल्भ्यो ।
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