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जिनेन्द्रप्रणीतं शुभं सिद्धिमार्ग प्रबुध्यात्मशक्त्या गृहीत्वा व्रतानि । नरेन्द्राग्रपल्यः सदा सिवपूजां नयन्त्यो वरालयः कृतार्था बभुवः ॥ १०७॥ इतिधर्मकथोदेशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते
अर्हन्महामहवर्णनो नाम त्रयोविंशतितमः सर्गः ।
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त्रयोविंशः
सर्गः
सम्राटकी पटरानी अनुपमादेवी आदि रानियोंने भी अपनी शक्ति और ज्ञानके अनुसार जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रणीत, शुभकारक तथा सकलसिद्धिके अमोघ उपाय स्वरूप जिनधर्मको समझा तथा धारण किया था। वे सुकुमार सुन्दरियाँ सदा ही सिद्धपूजा आदि धार्मिक कार्योंको करती हुई दिन बिताती थीं, और इस विधिसे अपने जीवनका लक्ष्य सिद्ध कर रही थीं।। १०७ ॥
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें
अर्हन्महामहवर्णन नाम त्रयोविंशतितम् सर्ग समाप्त ।
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