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बराङ्ग चरितम्
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समन्दरं विश्वजनाधिगम्यं समस्तलोकाभ्युदयैकहेतुम् । विशुद्धिशुद्धोऽधिकवृद्धितेजाः पूजार्णवं भूमिपतिस्ततार ॥ ९५ ॥ सुश्रावकः सर्वगुणाधिवासः सद्गन्धपुष्पाक्षत पूर्णपाणिः । स्वस्त्यादिभिर्मङ्गलभारतीभिः शशंस सच्चूतफलावसानैः ।। ९६ ॥ आचन्द्रतारं जयतुजिश्रीः सद्धर्ममार्गः परमार्थसारः सुखीभवत्वार्हत सर्वसंघः सिद्धालयाः स्फीततमा भवन्तु ॥ ९७ ॥ देशो भवत्वाधिकगोधनाढ्यः सुभिक्षनित्योत्सव भोगयुक्तः । राजा जितारिजिनधर्मभक्तो न्यायेन पायात्सकलां धरित्रीम् ॥ ९८ ॥
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धर्मवीर वरांग
वरांगराजकी आभ्यन्तर तथा बाह्य विशुद्धि परिपूर्णताको प्राप्त हो रही थी, उनके बाह्यतेजके साथ-साथ आध्यात्मिक तेजकी भी आशातीत वृद्धि हो रही थी अतएव उक्त पर्वके दिनोंमें उन्होंने एक प्रकारसे पूजारूपी समुद्रको ( विशाल आयोजन ) ही फैला दिया था । उनके उस आयोजनमें सर्वसाधारण सम्मिलित हो सकते थे तथा जिनमन्दिरका साक्षात् अवलम्बयुक्त होने के कारण उस समस्त उत्सव समुद्रको प्रजासहित पार कर सका था एवं प्राणियोंके कल्याणका मूल कारण भी हो सका
था ।। ९५ ।।
उस समय अपने राजत्वको भूलकर वरांगराजने आदर्श श्रावकताको ही अपना चरमलक्ष्य मानकर श्रावकोचित समस्त गुणों को अपने में लाने का प्रयत्न किया था। वे शुद्ध जल, चन्दन, अक्षत आदिको अंजलियाँ हाथोंमें लेकर स्वस्ति-विधान से प्रारम्भकर मंगल आदि स्तोत्रों पर्यन्त जिनेन्द्रदेवकी पूजा की थी जिसका अन्तिम फल मोक्ष महापदकी प्राप्ति ही थो ॥ ९६ ॥
वे कहते थे कि महाप्रतापी पुण्यमय सत्य धर्मोका सारभूत जिनधर्म तबतक इस पृथ्वीपर प्रचलित रहे, जबतक चन्द्रमा और सूर्य उदित होते हैं; क्योंकि जिनधर्म ही परमागमका सार है । अर्हन्त प्रभुके शासनके अनुकूल आचरण करनेमें लीन चारों प्रकारके संघोंको सब सुख शान्ति प्राप्त होवे, सिद्धिके साधक जिनालयोंका विस्तार हो ।। ९७ ।।
राष्ट्र में हर दृष्टिसे गोधन, आदि सम्पत्तिकी असीम वृद्धि हो, सदा सुभिक्ष हो, जनताकी मानसिक तथा शारीरिक स्थिति ऐसी हो कि वे सदा ही उत्सव, भोग, आदिको मना सकें, राजा शत्रुओंको जीतनेमें समर्थ हो, जैनधर्मका सच्चा अनुयायी हो, तथा न्यायमार्गके अनुसार ही प्रजाओंका पालन करे ।। ९८ ।।
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त्रयोविशः
सर्ग:
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