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एकविंशः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
तुरङ्गमानां तु सहस्रमात्रया मतङ्कजानां शतसंख्यया तथा । हिरण्यकोटया वरलम्बिकाशतैर्वराङ्गराज मु कुलोऽभ्यमूवदत् ॥ ७४ ॥ ततः परेषामविलयशासनः स्ववीर्यसंपादितकार्यसाधनः' । रराज रक्षन्सकला वसुंधरां पुरन्दरो द्यामिव सुव्रतालयाम् ॥ ७५ ॥ नवान्नवान्हर्षविशेषहेतवः२ प्रियाङ्गनाभृत्यसुमित्रबान्धवान् । सुरत्नहस्त्यश्वरथान्महीपतिः समाप्तवान्निम्नतलं जलं यथा ॥ ७६ ॥ समस्तसामन्तसमाहृतदिनैर्न रेन्द्रनीत्यायतबाहुकर्षितैः । भशं पुपूरे नरदेवसंमत' सरित्प्रवेगैरिव वारिधेर्जलम् ॥ ७७॥
___ वकुलेशने सुशिक्षित तथा सुलक्षण एक हजार घोड़े, मदोन्मत्त रगमें स्थायी सौ हाथी, करोड़ प्रमाण हिरण्य तथा । सैकड़ों वरलम्बिकाएँ ( हार-विशेष ) दहेजमें देकर आनर्तपुरेश वरांगराजको प्रसन्न कर दिया था ॥ ७४ ।।
उस समय आनर्तपुराधिप श्री वरांगराजका शासन इतना अधिक प्रभावमय था कि शत्रु लोग भी उसकी अवज्ञा करनेकी कल्पना तक न करते थे। उसके सब ही अभीष्ट कार्य अपने पराक्रमके बलपर तुरन्त सफल हो जाते थे। अपने पूर्ण राज्यका भरणपोषण करता हुआ वह वैसा ही मालम देता था जैसा कि इन्द्र मरणोपरान्त प्राप्त होनेवाले व्रती जीवोंके निवासस्थान ( स्वर्गका ) शासन करता हुआ लगता होगा ॥ ७५ ।।
सफल शासक __ जलधारा जिधर ही ढाल धरातल पाती है उसी दिशामें बहती चली जाती है उसी प्रकार विना किसी प्रेरणाके ही हर्ष तथा उल्लासके उत्पादक नूतन, नतन साधन वरांगराजके पास आते थे। प्राणोंसे भी अधिक प्यार करने योग्य पत्नियाँ, आज्ञाकारी सेवक, हितैषी मित्र, स्नेही बन्धु-बान्धव, उत्तमसे उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ, आदिको भी वह अनायास ही प्राप्त करता था ।। ७६ ।।
उमड़ती हुई नदियोंकी विशाल धारा जिस विधिसे समुद्रकी अमर्याद जलराशि को बढ़ाती है ठीक उसी क्रमसे श्री वरांगराजको सम्पत्तिके आगार बड़ी तीव्र गतिसे भरते आते थे, क्योंकि सब ही सामन्त राजा लोग विशाल सम्पत्ति लाकर उसमें मिलाते थे तथा स्वयं उसकी न्याय नीतिरूपी भुजाएँ भी राजस्वके रूपमें विपुल धन बटोरकर उसी में लाती थीं ।। ७७ ॥ १. क कार्यसाधिनः । २. [ °हेतून् ] । ३. क प्रशस्त । ४. [°धन ] । ५. [ °संपदं ।
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