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चराङ्ग चरितम्
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था ।। ६९ ।।
मङ्गल्यगीतस्तुतिमन्त्रयुक्तः कृताञ्जलिः साधुगणो हि तत्र । परीत्य सर्वोऽतिविशुद्धभावः सर्वज्ञबिम्बं प्रणनाम भक्त्या ॥ ७० ॥ धर्मोऽर्हतां सर्वजगद्धिताय प्रवर्धतामित्यभिघोषयन्सः । साशीर्वचस्तर्यमृदङ्गनादेः प्रवेशयां तां प्रतिमां बभूव ॥ ७१ ॥ ततो वचः काय मनोविशुद्धः प्रविश्य राजा जिनदेवगेहम् । प्रियासमेतः प्रणिपत्य भक्त्या जग्राह शेषां जिनदेवतायाः ॥ ७२ ॥ मनोरथं प्राप्य नरेन्द्रपत्नी महेन्द्रपत्नीव विराजमाना । उपोपविष्टा प्रभुनैव सार्धं मुदं परामात्मनि सा जगाम ॥ ७३ ॥
स्वस्तिवाचन के बाद ही वहाँ उपस्थित साधु एवं सज्जन हाथ जोड़े हुए मंगल, विनती, स्तोत्र तथा मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए श्री जिनेन्द्रदेवकी मूर्ति के सामने आये थे । उनके मन तथा भाव अत्यन्त शुभ और शुद्ध थे अतएव उन्होंने भक्तिसे गद्गद होकर प्रभुके चरणोंमें प्रणाम किया था ॥ ७० ॥
इसके तुरन्त बाद ही स्नापकाचार्यने धीर गम्भीर स्वरसे घोषणा की थी 'संसार भरके प्राणियोंका कल्याण करने के लिए अन्त केवली द्वारा उपदिष्ट जिनधर्मका जय हो ।' तदनन्तर आशीर्वाचन करते हुए मृदंग तूर्यं आदि बाजोंके नादके बीच ही उन्होंने जिनबिम्बको वेदिकापर विराजमान कर दिया था ॥ ७१ ॥
आशीर्वाद
इस प्रकार अभिषेक समाप्त होते ही मन, वचन तथा कायसे पूर्ण शुद्ध सम्राटने अपनी रानियोंके साथ गर्भंगृहमें प्रवेश किया था। जिनबिम्बोंके सामने जाते ही उन्होंने भक्ति भावसे ओतप्रोत होकर साष्टांग प्रणाम किया था। तथा जिनेन्द्रदेव की शेषिका ( आरती होनेके बादका दीपक या वैसान्दुरके पात्र पर दोनों हाथ जोड़कर उसका धुंआ आदि लेकर आँखों और मस्तकपर लगाना) को ग्रहण किया था ।। ७२ ।।
पट्टरानी अनुपमाका मनोरथ ( जिनपूजोत्सव ) उस समय पूर्ण हो रहा था अतएव मन ही मन उनको जो असीम आनन्द हो रहा था उसको वर्णन करना असम्भव है । पूजामण्डपमें सम्राट के साथ बैठी हुई पट्टरानीकी कान्ति और तेजको देख कर महेन्द्रकी पत्नी शचीका धोखा हो जाता था ॥ ७३ ॥
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त्रयोविंशः सर्गः
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