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द्वाविंशः
परितम्
सर्गः
जिनेन्द्रगेहो वरधर्मदेहः' सुधामयस्तुजविचित्रशृङ्गः। दूरावगाढ्यो गगनेऽभ्यराजद्वितीयकैलास इवाद्वितीयः ॥ ६६ ॥ प्रेक्षासभावल्यभिषेकशालाः स्वाध्यायसंगीतकपटशालाः। सतोरणाट्टालकवैजयन्त्यश्चलत्पताका रुचिरा विरेजुः ॥ ६७ ॥ प्राकारमालाभिरथो परीतं चैत्यं बभासे जिनपुजवानाम् । मेघावलोभिः परिवेष्टयमानः समुल्लसन्तीभिरिवारराज ॥ ६८ ॥ प्रियङ्ग्वशोकदुमकर्णिकारः पुन्नागनागाशनचम्पकानाम् ।
वाप्यो' विरेजः सविहारयोग्या बहिःप्रदेशे भुश्वनोत्तमस्य ॥ ६९॥ मूगे, मोती तथा अद्भुत मणि जड़े हुए थे। इन रत्नोंको देखकर ऐसा आभास होता था कि वहाँपर दिनरात उपहार चढ़ते रहते हैं ।। ६५ ॥
इस जिनालयकी नींव बहुत नीचे तक दी गयीं थी, उसका पूरा निर्माण काफी ऊँचा था विशाल शिखरोंकी ऊँचाईके विषयमें तो कहना ही क्या है, क्योंकि वे आकाशको भेदती हुई चली गयी थी। उसके प्रत्येक भागको उज्ज्वल चनेसे पोता मया था । दूरसे देखनेपर वह ऐसा मालूम देता था मानो दूसरा कैलाश पर्वत हो खड़ा है। कहनेका तात्पर्य यह कि वह अद्वितीय मन्दिर मूर्तिमान धर्म ही था ॥ ६६ ॥
मन्दिरके विभाग उसमें प्रेक्षागृह ( दर्शन करनेका स्थान ), बलिगृह (पूजा करनेका स्थान ), अभिषेकशाला, स्वाध्यायशाला, सभागृह, संगीतशाला तथा पट्टगृह (पुराणोंमें कथा आती है दासियाँ आदि अपने सेव्य कुमारियों तथा कुमारोंके पट्टको ले जाकर मन्दिरोंमें
बैठती थीं और पहिचाननेवालोंको उपयुक्त व्यक्ति समझा जाता है ) अलग-अलग बने हुए थे। इन सबमें कटे हुए तोरणों तथा । । ऊपर बनी अट्टालिकाओंकी शोभा तो सब प्रकारसे ही लोकोत्तर थी॥ ६७ ॥
ऊँची-ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं तथा चंचल ध्वजाओंकी शोभा भी अनुपम थी । संसारके परमपूज्य जिनेन्द्र बिम्बोंका वह चैत्यालय सब दिशाओंमें कई परकोटोंसे घिरा हुआ था। फलतः उसे देखकर पर्वतोंके राजा सुमेरुकी उस श्रीका स्मरण हो आता था जो कि अनेक सुन्दर मेघमालाओंसे घिर जानेपर पावसमें उसकी होती है ।। ६८ ॥
उत्तम जिनालयके बाहरके प्रदेशों पर प्रियंगु ( एक प्रकारका घास), अशोक, कर्णिकार (कनेर), पुन्नाग ( सुपारी), नाग ( नागकेशर), अशन ( पीत शालवृक्ष ) तथा चम्पक वृक्षोंकी सुन्दर वाटिकाएँ थीं। तथा उनमें घूमनेसे मनुष्यको शान्ति । १. क °धर्मगेहः। २.[ दूरावगाढो]। ३. म प्रष्या । ४. [ वाट्यो]। ५. [ भवनोत्तमस्य ] ।
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