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द्वारोपविष्टा कमलालया श्रीरुपान्तयोः किन्नरभूतयक्षाः । तीर्थकराणां हलिचक्रिणां च भित्त्यन्तरेष्वालिखितं पुराणम् ॥ ६१ ॥ हयद्विपस्यन्दनपुलवानां मृगेन्द्रशार्दूलविहसमानाम् । रूपाणि रूप्यैः कनकैश्च ताम्रः कवाटदेशे सुकृतानि रेजुः ॥ ६२ ॥ स्तम्भैज्वल भिस्तपनीयकुम्भैविचित्रपत्रांशुपरीतशोभैः । तैः स्फाटिकर्दम्पतिरूपयुक्त रेजे जिनेन्द्रप्रतिमागृहं तत् ॥ ६३ ॥ प्रवालकतनपुष्परागैः पद्मप्रभैः सस्यकलोहिताक्षः ।। महीतलं यस्य मणिप्रवेकैस्तारासहौरिव खं व्यराजत् ॥ ६४॥ वैड्यनालैस्तपनीयपी महेन्द्रनीलैर्भमरावलीकैः प्रवालमुक्तामणिभिविचित्रनित्योपहारैः कृतमङ्गलं तत् ॥ ६५ ॥
मामा
द्वाविंशः सर्गः
-मर
NASIRELIGIRGETAHIKARI
जिनालयका साज द्वारके ऊपर ही कमलनिवासिनी लक्ष्मीदेवीकी सुन्दर मूर्ति बनायी गयो थी, दोनों ओर किन्नरों, भूतों तथा यक्षोंकी मूर्तियाँ बनायी गयी थीं। पुराणोंमें वर्णन किये गये चरित्रोंके अनुसार मन्दिरको सब भित्तियों पर प्रातःस्मरणीय तीर्थंकरों, नारायणों, चक्रवतियों आदिके भावमय सजीवसे चित्र बनाये गये थे ॥ ६१।।
मन्दिरके विशाल कपाटों पर घोड़ा, हाथी, रथ, इनके आरोही श्रेष्ठ पुरुष, मृगोंके राजा सिंह, व्याघ्र, हंस आदि पक्षियोंके आकारोंको ताम्बे, चाँदी और सोनेके ऊपर काटकर ललित कलामय विधिसे जड़ दिया था ॥ ६२ ।।
गर्भगृह, जिसमें वोतराग जिनेन्द्र प्रभुकी प्रतिमाएँ विराजमान थीं, उसके सबही खम्भे स्फटिक मणिके बने थे अतएव उनकी प्रभासे ही पूरा जिनालय जगमगा रहा था। इन खम्भों पर काटकर स्त्री तथा पुरुषके युगलकी मनोहर मूर्तियाँ बन रही, थीं। खम्भोंके कलश शुद्ध स्वर्णके थे तथा चारों ओरसे वे विचित्र पत्तों आदिसे घिरे थे जिनसे निकलती हुई किरणोंके कारण सब। ओर शोभा ही शोभा विखर गयी थी ।। ६३ ।।
जिनालयके सुन्दर धरातलमें उत्तम मंगे, मोती, मरकत मणि, पुष्पराग ( एक प्रकारके लाल), पद्मप्रभ ( श्वेतमणि), घासके समान हरे मणि, रक्तवर्ण नेत्रके सदृश मणि तथा अन्य नाना प्रकारके मणि जड़े हुए थे। इन सबकी द्युतिके कारण वह ऐसा प्रतीत होता था जैसा कि हजारों तारे उदित होनेपर स्वच्छ सुन्दर आकाश लगता है ।। ६४ ।।
___ उसमें जड़े गये कमल विशुद्ध सोनेके थे, उनके कोमल नाल वैडूर्य मणिसे काटकर बनाये गये थे, कमलोंपर गुंजार करते है। हुए भौरोंकी पंक्तियाँ महेन्द्रनील मणियोंको काटकर बनी थीं। उनके आसपास नीहार बिन्दु आदिको चित्रित करनेके लिए उत्तम । १.क रूपैः। २. म नित्योपहाराः।
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