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बराङ्ग
चरितम्
व्याधूयमानानि विलासिनीभिर्धन्दानि तान्युत्तमचामराणाम् । उत्पश्यतां तत्र समागतानां समुत्पतद्धंसनिभान्यभवन् ॥ ३५॥ प्रोतैश्च सूत्रैर्मणिभिर्महाघैः प्रान्ते निबद्धा विलसद्वितानाः । समुच्छ्रिताः काञ्चनदण्डतुजा गङ्गातरजा इव ते विरेजुः ॥ ३६॥ हंसांसकुन्दच्छदपाण्डुराणि वैडूर्यदण्डानि मनोहराणि ।। सकिङ्किणीकानि सदा महानि छत्राणि रेजुर्युवभिघृतानि ॥ ३७॥ भुङ्का रिकादर्शनपालका द्यान्समुल्लसच्चित्रपटान्सपुष्पान् । हस्तेषु धृत्वा विविधप्रकारांस्तेषां पुरस्ताल्ललना निरीयुः ॥ ३८॥
चाचा -म
त्रयोविंशः सर्गः
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चमर-धारिणी ललनाए पवित्र वेशभूषा युक्त शिष्ट सुन्दरियाँ पूजन-सामग्रोके आसपास चमर हिलाती जाती थीं। वे सबके सब चमर भी उत्तम प्रकारके धवल चमर थे। अतएव देखनेके लिए मार्गके दोनों ओर एकत्रित हुए विशाल जन समूहको ऐसा अनुभव होता था मानों सामग्रीके आसपास हंस ही उड़ रहे हैं ॥ ३५ ॥
महा मूल्यवान मणियोंको सूतमें पिरो कर झालर बनायी थी और उसे चमरोंके अन्तिम भागमें लगा दिया था। चमरोंको डंडिया स्वच्छ सोनेसे बनी थी। ऐसे लम्बो डंडीयुक्त चमरोंको जब यवक ढोरते थे तो वे गंगाकी लहरोंके समान शोभित होते थे। सामग्रीके ऊपर युवक लोग पवित्र छत्र लगाये थे ।। ३६ ।।
इन छत्रोंके बड़े-बड़े मनोहर डंडे वैडूर्य मणियोंके बने थे, इनके ऊपर मड़ा हुआ वस्त्र हंसके पंखों अथवा कुन्द ( जुही या कनैर) पुष्पकी पंखुड़ियोंके समान अत्यन्त धवल था तथा चारों ओर मधुर शब्द करती हुई छोटी-छोटी घंटियों बंधी हुई थीं ॥ ३७॥
भंगारिक (झारी), दर्शन ( दर्पग), पालक (पंखा) आदि अष्टमंगल द्रव्य तथा अत्यन्त शोभाके भंडार माला आदिसे सुसज्जित चित्रों और चित्रपटोंको हाथोंमें लेकर सबके आगे-आगे कुलीन कुमारियां चल रही थीं। इन वस्तुओंके समस्त आकार और प्रकारोंका वर्णन करना अतीव कठिन था ॥ ३८ ॥ १. [ महान्ति ] | २. [ भृङ्गारिका]। ३. क पालिकाद्यान् । ४. म सपट्टान् ।
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